हज़ारों यादों के पत्तों का मैं ढेर होकर रह गया
हर एक किस्से के साथ मैं कुछ पीछे छूटता रहा
सियाह-रातों की ना हुई जो वो सहर हो कर रह गया
तुम करती रही मुझसे मुहब्बत ये ही गनीमत थी गुलाब
मेरी वफा का असर ज़िंदगी पर तुम्हारी ज़हर जैसा हो गया
सूने-वीरान घर की दीवारों पर भटकती हो कोई बेल जैसे
मेरी कमससाती रुह के लिए जिस्म ही जेल जैसा हो गया
हंसते-गाते गुज़रते थे काफिले बरसों पहले जहां से
उस शहर का उजड़ना तूफानों के लिए खेल जैसा हो गया