शनिवार, 29 मार्च 2014

डी.के.बोस..


दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में मशहूर गीतकार गुलज़ार आए हुए थे। हॉल खचाखच भरा हुआ था और हर कोई उनको सुनना चाहता था। गुलज़ार हर सवाल का जवाब बड़े ही बेबाक हो कर दे रहे थे। तभी बात चली फिल्मी गानों के गिरते स्तर की। गानों में इस्तेमाल होनेवाले द्विअर्थी शब्दों पर एक सवाल उनकी ओर दागा गया। गुलज़ार साहब ने भी वही पुराना जवाब दिया जो अक्सर इस सवाल के जवाब में वो दिया करते होंगे - "हम वो ही लिखते हैं जो पब्लिक की डिमांड होती है।" उनकी इस बात पर हॉल में सबसे पीछे से एक सवाल अक्खड़ लहजे में उभरा- "यो पब्लिक के मांग री है इसका पता आप फिलमवालों कू कैसे लागै जी....कोई सपणा-वपणा आवै के??" सवाल और अंदाज़ दोनों ही ऐसे थे कि इसके बाद गुलजार साहब की सारी बेबाकी पानी भरने चली गई। सच ही तो है, घटिया गाने लिखने-बनाने वाले हर बात पब्लिक के मत्थे मढ देते हैं मगर इनके पास क्या ज़रिया है मालूम करने का कि कोई कब क्या मांग रहा है,कुछ भी तो नहीं। बस अपनी सनकी कारनामों को पब्लिक की डिमांड पर मढ दो और बिना जवाबदेही के मुनाफा बटोरते फिरो। यही हाल टीवी न्यूज़ का है और यही फॉर्मूला अपनाते हैं टीवी चैनल पर डेली सोप परोसनेवाले। लोगों के बारे में परसेप्शन बनाकर कुछ भी ऑन एयर करते हैं और सवाल पूछने पर इनसे पीड़ित जनता को ही आरोपी बना कटघरे में खड़ा कर देते हैं। 
  

1 टिप्पणी:

  1. महेश भट्ट और उनकी बेटी पूजा भट्ट इसी मुद्दे पर मेरे सवालों से तंग आकर डेढ़ बरस पहले मुझे ब्लॉक कर बैठे हैं। यह सच ही तो है, इन्हें क्या कोई सपना आता है कि पब्लिक क्या चाहती है! अच्छे गाने एक लंबे अरसे तक सुने जाते हैं। ओछे वाले सिर्फ चार दिन। हाँ, अच्छे वालों के लिए अच्छे सिंगर और लेखक/कवि की जरूरत होती है, ओछे वाले तो तुरंत बनाए जा सकते हैं।

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