रविवार, 28 जनवरी 2018

महात्मा और भगत -1

AUGUST VAILLANT फ्रांस के अराजकतावादी क्रांतिकारी थे। 9 दिसंबर 1893 को उन्होंने चेंबर ऑफ डेप्युटीज़ में धमाके किए और बाद में उन्हें 3 फरवरी 1894 को मौत की सजा दे दी गई। हिंदुस्तान में भगत सिंह ने बहरी अंग्रेज़ी सरकार को अपनी आवाज सुनाने के लिए भी यही रास्ता चुना। आज की संसद और तब की सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली में उन्होंने बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर 8 अप्रैल 1929 को यही किया। खाली बेंचों पर बम धमाके किए, परचे फेंके और जमकर नारे लगाए। ऐसा करते वक्त उन्हें अपनी सजा का अंदाजा अच्छी तरह था। बम फेंकते वक्त भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने खाकी हाफ पैंट, कमीज़ और हल्के नीले रंग के कोट पहने हुए थे। उस वक्त चारों तरफ अफरा तफरी का माहौल था।
AUGUST VAILLANT की तस्वीर,  एसोसिएटिड प्रेस के हवाले से अखबार में छपी बम धमाके की खबर




















हिंदुस्तानी नेता मोतीलाल नेहरू, मदनमोहन मालवीय, मोहम्मद अली जिन्ना, एम आर जयकर और रफी अहमद किदवई उस वक्त चुपचाप खड़े रहे और बाद में बचाव पक्ष की तरफ से गवाही भी दी। हालांकि बाद में सदन ने जब बमकांड की निंदा का प्रस्ताव पारित किया तो भले ही कई राष्ट्रवादी नेता उसमें शामिल थे लेकिन मालवीय जी ने खुद को इससे अलग कर लिया। मरहूम खुशवंत सिंह के पिता सर शोभा सिंह ने इन क्रांतिकारियों की भरी अदालत में पहचान की थी। इस मामले में भगत सिंह और सुखदेव को 12 जून 1929 को आजीवन कालापानी की सजा सुनाई गई थी। उन्हें दिल्ली जेल से पंजाब के मियांवाली जेल भेज दिया गया। वहां भगत और उनके साथियों पर लाहौर षड्यंत्र कांड (जिसके तहत सांडर्स की हत्या हुई थी) का मुकदमा चलाया जाना था। भगत सिंह ने मियांवाली जेल और सुखदेव ने लाहौर जेल से अल्पतम सुविधाएं मुहैया कराए
मियांवाली जेल, जहां भगत को कैद रखा गया
जाने के जो खत लिखे वो मदनमोहन मालवीय जी ने सेंट्रल एसेंबली में सुनाए। दोनों दिल्ली जेल जैसी सुविधाएं चाह रहे थे, उससे ज़्यादा कुछ नहीं। मांगें नहीं मानी गईं तो केस के सभी आरोपी अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठ गए। कुछ कांग्रेसी नेताओं ने देश भर में इन कैदियों के समर्थन में प्रचार शुरू कर दिया जिनमें सैफुद्दीन किचलू, मोहम्मद आलम और गोपीचंद भार्गव शामिल थे। पहले से ही क्रांतिकारियों का दीवाना देश और भी आवेश में आ गया। 30 जून 1929 को देश में भगत सिंह दिवस मनाया गया। ये उस नौजवान क्रांतिकारी के लिए लोकप्रियता का चरम था। ब्रिटिश इंटेलिजेंस ब्यूरो के निदेशक रहे सर होरेस विलियम्सन ने अपनी किताब ‘हिंदुस्तान और साम्यवाद’ में लिखा भी है कि- ‘भगत सिंह ने कुछ भी गलत नहीं किया था। कैदियों के कटघरे उस समय राजनीतिक मंच बन गए थे। पूरा देश उनकी वीरोचित ओजस्विता से गूंजने लगा था। उनकी तस्वीरें हर शहर और कस्बे में बिकने लगी थीं। कुछ समय के लिए लोकप्रियता में वह गांधीजी की बराबरी करने लगे थे।’
लाहौर षड्यंत्र केस में दर्ज एफआईआर
जब मामले की सुनवाई के लिए भगत सिंह को लाहौर जेल लाया गया तो अनशन ने उनकी हालत खराब करके रख दी थी। कई आरोपियों का बैठना या खड़ा हो पाना मुमकिन ही नहीं था। भगत और कई साथियों ने तो अपना वकील लेने से भी इनकार कर दिया। अदालती कार्रवाई इसके बिना पूरी होने का सवाल ही नहीं था। कानून के तहत मुकदमा चलाए जाने के लिए अभियुक्त और वकील दोनों को ही अदालत में मौजूद रहना था। लेखक वीरेंद्र कुमार बरनवाल ‘जिन्ना- एक पुनर्दृष्टि’ में लिखते हैं कि गांधी के मार्ग से असहमत इन तरुण क्रांतिकारियों ने गांधी के ही अस्त्र से अंग्रेज़ों की न्याय व्यवस्था को खोखला और अपर्याप्त सिद्ध कर दिया था।
मगर अंग्रेज़ बौखला रहे थे। सांडर्स की हत्या ने ब्रिटेन तक में भारत सरकार की किरकिरी करवा दी थी। ऊपर से भगत सिंह और उनके साथी जिस तेज़ी से लोकप्रिय हो रहे थे वो उन्हें गांधी की तरह ही एक और बड़ी चुनौती बनाते जा रहे थे। अंग्रेज़ भगत सिंह को फांसी देने के लिए कितने बेताब थे इसे समझना ज़रूरी है। इसे समझे बिना हम भगत को बचाने में गांधी जी की अक्षमता या विवशता किसी को ठीक से समझ नहीं पाएंगे। अंग्रेज़ों के सामने अब कानूनन दो अड़चनें थीं जिन पर ध्यान दीजिएगा। पहली तो ये कि इंडियन क्रिमिनल प्रोसीजर कोड में एक नई धारा जोड़ने की जरूरत थी जो अभियुक्त या उसके वकील की गैर हाज़िरी में भी मुकदमा चलाने का हक दे दे और दूसरी ये कि मजिस्ट्रेट के सामने मुकदमे के बाद केस सेशन जज के पास जाता था। अगर जज फांसी की सजा देता तो उसकी पुष्टि उच्च न्यायालय से होना ज़रूरी था। इस पूरी प्रक्रिया में काफी समय लगना था। दुनिया में इंसाफ पसंद नस्ल माने जाने को बेताब अंग्रेज़ों ने उस साल बेशर्मी के कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए। उन्होंने दोनों समस्याओँ का तोड़ निकाल लिया। पहला काम तो ये किया गया कि कानून में नई धारा जोड़ी गई। इसके अनुसार यदि कोई अभियुक्त खुद को जानबूझकर ऐसी हालत में डाल लेता है कि वो अदालत में पेश ना हो सके तो चाहे उसने वकील किया हो या ना किया हो उस पर मुकदमा चलाया जा सकता है। दूसरा ये किया गया कि मुकदमे की सुनवाई के लिए सीधे उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को बैठाकर एक विशेष ट्रिब्यूनल का गठन किया गया ताकि मुकदमा जल्दी चले, सज़ा जल्दी हो और फिर उस पर अमल भी तुरंत ही हो सके। उस वक्त गवर्नर जनरल लॉर्ड इरविन थे। उन्हें भगत सिंह की फांसी से डिगाना मुश्किल था। वो मामले में ज़्यादा रुचि ले रहे थे। उन्होंने ट्रिब्यूनल का गठन तो किया ही, साथ में उसे अधिकार दिया कि चाहे निर्णय जो हो उसकी अपील कहीं और नहीं हो सकती। 

मैं यहां आपको बताना चाहता हूं कि अभियुक्त के बिना मुकदमा चलाए जाने की धारा जोड़े जाने का बिल जिस वक्त सेंट्रल एसेंबली में लाया गया तब उसके खिलाफ मदनमोहन मालवीय, मोतीलाल नेहरू, मुहम्मद अली जिन्ना, एम आर जयकर उठ खड़े हुए। इसी दौरान 62 दिनों की भूख हड़ताल के बाद जतींद्रनाथ दास 13 सितंबर 1929 को जेल में प्राण त्याग चुका था। देश में भारी रोष था। कुछ अंग्रेज़ तक इस मौत से बुरी तरह परेशान और दुखी थे। अंदाज़ा लगाइए कि जतींद्रनाथ की मौत के बाद जब फिर से उसके मामले की सुनवाई शुरू हुई तो सरकारी पक्ष से अंग्रेज़ वकील कार्डेन नोड तक ने उस बालक की सराहना की। उस दिन पूरी अंग्रेजी अदालत जतींद्रनाथ को श्रद्धांजलि देने के लिए उठ खड़ी हुई थी। 
बहरहाल सेंट्रल असेंबली में लौटते हैं। हर शब्द ध्यान से पढ़िएगा। बिल के खिलाफ बोलने के लिए मशहूर वकील और बाद में पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना खड़े हुए। उन्होंने कहा कि ‘सर जेम्स क्रेरार (जिन्होंने ये बिल लॉर्ड इरविन के इशारे पर पेश किया था) ने अपने भाषण में लाहौर के अभियुक्तों को राजनीतिक बंदी का दर्ज़ा देने से साफ मना कर दिया था। असल में पूरी समस्या की जड़ यही थी। यदि उन्हें ‘राजनीतिक बंदी’ मान लिया जाता तो उन्हें जेल में सामान्य अपराधियों (जिसमें कातिल, बलात्कारी, लुटेरे सब थे) की स्थिति में ना रहना पड़ता और उन शिकायतों को दूर करने का रास्ता साफ हो जाता, जिसकी वजह से अपनी मांगें पूरी कराने के लिए उन्हें लंबी भूख हड़ताल का सहारा लेना पड़ा।‘ इसके बाद चमनलाल ने बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह का पूरा पत्र सदन में पढ़कर सुनाया जिसमें ‘राजनीतिक बंदी’ की व्याख्या करने की कोशिश हुई थी। पत्र के हिसाब से राजनीतिक बंदी वो हुआ जिन्हें राज अथवा सरकार के खिलाफ अपराधों के अभियुक्त के रूप में जेल में रखा गया था। पत्र में मांग थी कि ऐसे सभी कैदियों को विशेष वार्ड में रखा जाए और सारी सविधाएं उपलब्ध कराई जाएं जो योरोपीय बंदियों को थी।
तब होम सेक्रेटरी इमरसन ने कहा था कि हिंसा, राजद्रोह के अभियुक्तों को राजनैतिक कैदी की श्रेणी में रखना मुमकिन नहीं है। उन्होंने नस्लीय आधार पर भी हिंदुस्तानियों को योरोपियन्स की श्रेणी में रखने से इनकार किया। अब इमरसन फंस गए। उनसे के सी नियोगी ने लगे हाथ पूछ लिया कि आपके हिसाब से योरोपियन कौन सी श्रेणी है।
अपनी बहन और बेटी के साथ मुहम्मद अली जिन्ना
 इमरसन ने तब जेल मैन्युअल का सहारा लेते हुए बताया कि चाहे कोई योरोपियन हो या हिंदुस्तानी लेकिन अगर योरोपियनों जैसा रहता है तो वो इस श्रेणी में शामिल है। के सी नियोगी ने मौका देखकर कहा कि टोपी ( हैट, फेल्ट कैप वगैरह) लगानेवाला भी योरोपियन हो सकता है। जिन्ना ने भी कहा कि यदि नस्ल के आधार पर योरोपियन श्रेणी को जेल मैनुअल में परिभाषित नहीं किया जा रहा है तब तो भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त उस श्रेणी में आसानी से आते हैं। उनकी तस्वीरों का भी हवाला दिया गया। इसके बाद जिन्ना ने साफ ही कह दिया कि आप लोगों के बर्ताव से लग रहा है कि आपने उन बंदियों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया है। या तो सरकार उन्हें फांसी देना चाहती है या फिर कालापानी भेजना चाहती है। सरकार ऐसे लोगों को क्या सज़ा दे सकती है जो खुद ही अपनी जान लेने पर आमादा हैं। अनशन कर मृत्यु का वरण करना सबके बूते का नहीं है। सिर्फ अमेरिका में ऐसी एक घटना देखने को मिली है। जो भी इंसान भूख हड़ताल करता है उसकी अंतरात्मा अत्यंत संवेदनशील होती है। अपने उद्देश्य के सही होने में उसकी पूरी आस्था होती है। वह कोई सामान्य अपराधी नहीं होता, जिसे किसी नृशंस, स्वार्थप्रेरित और निम्नकोटि के अपराध का दोषी माना जाए।जिन्ना ने क्षोभ में यहां तक कहा कि बेहतर है कि न्याय का स्वांग ना किया जाए और इन्हें सूली पर टांग ही दिया जाए। जतींद्रनाथ की मौत से दुखी जयकर ने कहा कि हालांकि इन नौजवानों के राजनीतिक विचारों से हम में से कई सहमत नहीं हो सकते लेकिन इसमें दो राय नहीं कि अगर हिंदुस्तान में अपना शासन होता तो निश्चित ही ये साहसी और बहादुर नौजवान किसी आज़ाद देश की सेना के कमांडर और नौसेना के युद्धपोतों के सुयोग्य कैप्टन बनते। 
पंजाब (अब पाकिस्तान में) में भगत का पुश्तैनी घर
जिन्ना ने तो सरकार पर कटाक्ष भी किया कि इस मामले में आप 600 गवाह पेश करेंगे, अगर किसी मामले को साबित करने के लिए 600 गवाह लाने पड़ें तो ऐसा केस खराब और बहुत कमज़ोर माना जाता है।
कुल मिलाकर हर किसी का ज़ोर इस बात पर था कि लाहौर षडयंत्र के आरोपियों को राजनैतिक बंदी का दर्जा दे दिया जाए। आगे मैं आपको बताऊंगा कि अगर भगत और उनके साथी राजनीतिक बंदी माने जाते तो उनकी मुक्ति के आसार बढ़ जाते। गांधी ने कैसे भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी को टालने की लगातार कोशिशें कीं और क्यों क्रांतिकारियों का राजनीतिक बंदी घोषित ना हो पाना ही अंत में गांधी जी को बातचीत की मेज पर कमज़ोर कर गया।

इति इतिहास श्रृंखला की कड़ी

सोमवार, 8 जनवरी 2018

अंबेडकर से हिंदी पट्टी के सवर्ण बच्चे का पहला परिचय (भाग-2)

तो मैं बता रहा था कि कैसे डॉ भीमराव अंबेडकर से मेरा पहला परिचय हुआ। उनकी हाथ-टूटी मूर्तियों ने मेरे मन में उनके प्रति आकर्षण जगाया था। गोल-मटोल, कोट-पैंट पहने और हाथ में किताब लिए खड़े अंबेडकर की मूर्तियां हर गांव में थीं तो सही मगर सभी खंडित। एकाध कोई होगी जो साबुत थी। मैंने अपने आसपास के लोगों से जब भी सवाल किए तो मुझे अंबेडकर और दलितों को लेकर एक नफरत का सा भाव महसूस हुआ। दलितों से तो नफरत फिर भी समझ आती थी (जितनी एक बच्चे को आ सकती थी)। वो गंदे-संदे रहते हैं लेकिन देखने में ही साफ-सुथरे अंबेडकर से दिक्कत कैसी? मुझे याद है कि मैं दसवीं में था और अपने गांव के स्कूल में पढ़ रहा था।गरमी की एक दोपहर मैं बरामदे में खेल रहा था। एक औरत मेरी बुआ के साथ कुरसी पर बैठी बातें कर रही थी। जैसे ही वो गई, मेरी बुआ ने प्लास्टिक की उस कुरसी पर एक बालटी पानी फेंक दिया। पानी की तेज़ आवाज़ सुनकर मैं चौंक गया। कुरसी पर पानी फेंकने की हरकत को देख तो और हैरान था। मैंने वजह पूछी तो उन्होंने बताया कि वो @#$ थी। मेरा दिमाग भन्ना गया। बहसबाज़ पूरा था और डरना तो बहुत पहले छोड़ चुका था, पलट कर पूछा- वो चाहे जो थी, उसके कपड़ों में गोबर लगा था क्या ???? क्यों फेंका पानी कुरसी पर?
बेचारी मेरी बुआ तर्क-फर्क से दूर थी। उन्होंने जो सीखा था वही किया। सोलह साल के भतीजे से ऐसा सवाल सुना तो क्या जवाब देती। वो चली गईं लेकिन मैं बहुत देर तक बरामदे में घूम घूम कर बोलता रहा। उस उम्र तक मैं जाति का जन्मना गौरव खोने लगा था। हां, मुखर भले नहीं था और अपने नाम के आगे और पीछे जातिगत उपनाम भी लगाता था लेकिन दलितों से मेरी कोई चिढ़ नहीं थी। क्रिकेट टीम चुनने के वक्त मेरी पहली पसंद हरिजन लड़के रहते थे। कमाल का खेलते थे। फील्डिंग के दौरान उन्हें गिरकर बॉल रोकने में समस्या नहीं होती थी। सोफिस्टिकेटेड सवर्ण भाई जेब में हाथ डाल बॉल को जाते देखते रहते थे, क्योंकि वो कपड़े गंदे नहीं करना चाहते थे। उस दौरान गांव के अकेले मुस्लिम परिवार का लड़का मेरा सबसे अच्छा दोस्त था। मैं घर पर नहीं था और ईद पर वो मेरे लिए मिठाई देकर गया था। घर लौटने पर मुझे मिठाई नहीं मिली क्योंकि एक मुसलमान के घर से मिठाई आने पर पहले ही इधर-उधर ठिकाने लगा दी गई थी। मैं घर भर में जमकर बरसा था। वो फिर अलग ही किस्सा है कि उस मिठाई की कमी मैंने उसके घर पर खा-पीकर पूरी की थी। उस वक्त मैं नहीं जानता था कि अपनी 'महानता' (जैसा कुछ लोग अब तक समझने लगे होंगे कि मैं अपनी महानता का गौरवगान कर रहा हूं) के किस्से सुनाने का कभी मौका मिलेगा। खैर, अभी भी मैं अंबेडकर को ठीक से एक्स्प्लोर नहीं कर पा रहा था।
आगे मुझे ये भी बताया गया कि अंबेडकर ने तो संविधान लिखा ही नहीं, वो तो इधर-उधर से दूसरों का माल इकट्ठा करके एक किताब में डाल भर दिया। भला ऐसा कोई संविधान होता है! अब जवाब तो मुझे नहीं मालूम था कि संविधान कैसा होता है मगर मेरे आसपास सब यही कहे जा रहे थे कि भला ऐसा कोई संविधान होता है! कई सालों तक मैं भी बिना दिमाग लगाए अंतर्मन में यही दोहराता रहा और आगे जाकर अपने से छोटों को भी बाकायदा तर्क देकर समझाने लगा कि संविधान तो उधार का पोटला है। ये बात ज़ाहिर है कि मैंने तब तक संविधान पढ़ा नहीं था, पढ़ लेता तो भी समझना मुश्किल था। ये समझना तो और भी मुश्किल था कि इसकी गहराई क्या है और ये कैसे हालात में किनके हितों की रक्षा के लिए लिखा गया था। बहरहाल, मैं छोटा था। औकात भर का सोच रहा था। आगे चलकर आरएसएस के आनुषांगिक संगठनों से संपर्क हुआ। वहां अंबेडकर की फोटो तो थी, लेकिन संविधान को लेकर ऐसा कोई खास सम्मान नहीं था। कभी-कभी तो सुनता भी था कि संविधान में हिंदुओं के लिए कुछ नहीं है। (जब पढ़ा तो पाया कि बात सही थी, सब भारत के नागरिकों के लिए था)। अभी तक भी मेरी समझ यही थी कि गांधी ने दलितों को खुश रखने के लिए अंबेडकर का प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल किया था। सबको साथ रखने का ये गांधियन तरीका था जो बाद में राजनैतिक दलों ने पूरी चालाकी से इस्तेमाल किया। अंबेडकर सिर्फ रबर स्टांप थे। खैर, संविधान सभा की बहस को टुकड़ों में पढ़कर या संविधान पर बनी डॉक्यूमेंट्री और किताबें देखकर पता चलता है कि अंबेडकर को रबर स्टांप बनाकर इस्तेमाल कर पाना किसी के लिए भी बूते से बाहर था। सही मायनों में अंबेडकर के लिए दलित प्रश्न से बड़ा ना कोई पद था और ना देश की आज़ादी ही थी। उनके सामने साफ था कि देश आज़ाद भी हो जाए तो भी दलितों के हालात बदलने मुश्किल हैं। महिला अधिकारों को लेकर उनकी ज़िद संविधान में साफ परिलक्षित होती है। तो मैं बता रहा था कि हिंदू संगठनों में भी अंबेडकर की फोटो के लिए जगह तो थी मगर दलितों के लिए नहीं। संविधान को लेकर भी सम्मान जैसी बात नहीं थी। दलित आबादी को साथ रखने के लिए अंबेडकर जयंती या वाल्मीकि जयंती मनाना पिछले दशक भर के चोचले हैं। वहां तिरंगे तक पर बहस होती है। बहस भले ही चिंतनशील समाज का लक्षण है लेकिन यहां उनके तब दिए जानेवाले तर्क लिख दूं तो बेवजह शर्मसार होंगे। फिर मैंने अंबेडकर की जीवनी पढ़ी। सोचा कि देख तो लूं आदमी भगवान कैसे बनता है। पढ़ा तो बहुत कुछ पाया। उनका संघर्ष तो जाना ही लेकिन उनके शिक्षक, महाराजा गायकवाड़ और गांधी जैसे सवर्णों को भी उस संघर्ष में योगदान देते पाया। (आज के अंबेडकराइट्स को इस लाइन से दर्द होगा, लेकिन मैं किसी की परवाह नहीं कर रहा तो उनकी भी क्यों हो)। किताबें पढ़कर मुझे हौसला मिला कि मैं अब जो अंबेडकर के बारे में जानता हूं तो गलत नहीं जानता हूं। एक बात जो मेरे मन में बहुत ज़्यादा घर कर गई थी वो ये कि विदेश से डिग्री लेकर लौटे अंबेडकर जब महाराजा गायकवाड के यहां नौकरी पर लगे तो उन्हें चपरासी तक फाइल दूर से फेंककर देता था। इतना ज़्यादा अपमान !! ऐसा और भी जाने क्या क्या सहने के बावजूद अंबेडकर ने बंदूक नहीं उठाई, कलम उठाई। बंदूक उठा लेते तो शायद कुछ साल बाद मारे जाते लेकिन कलम उठाने का विज़न ऐसा था कि उनको मारने की साज़िशें मर गईं.. और आज इतने सालों बाद उनके दुश्मन भी उन्हें मंजूर करने को मजबूर हैं.. वजह चाहे जो हों। मैं हर बात में अंबेडकर से सहमत नहीं हूं, उनसे क्या किसी से भी नहीं हूं लेकिन उनके बारे में काफी कुछ पढ़ने के बाद उन्हें भगवान नहीं मानता। भगवान नहीं मानता इसलिए असहमत होकर भी सम्मान में झुका हूं। उनका संघर्ष उनसे भी बड़ा है।

अंबेडकर से हिंदी पट्टी के सवर्ण बच्चे का पहला परिचय (भाग-1)

झूठ नहीं लिखूंगा.. भले ही सच लिखने में रिस्क हो। कभी कहीं पढ़ा था कि सच लिखने की सबसे अच्छी बात यही है कि उसे याद नहीं रखना पड़ता और याद्दाश्त मेरी बहुत कमज़ोर है। एक दौर ऐसा भी था कि मैं शरीर और दिमाग दोनों से ही बच्चा था (दिमाग से तो आज भी हूं)। खैर, उन दिनों गरमी की छुट्टियों में ननिहाल जाता था। वहां आम, क्रिकेट और ट्यूबवैल में नहाना मेरे लिए परम आकर्षण थे। हमारी अपनी ट्यूबवैल में नहाने के लिए गांव से बाहर निकलना पड़ता था। वहीं रास्ते में सड़क किनारे एकदम ही सुनसान में एक आदमी की छोटी सी खंडित मूर्ति खड़ी देखी थी। पहले पहल तो नहाने के उत्साह में उसे लेकर कोई फिक्र नहीं हुई मगर बालमन कब तक ना पूछता। आखिर एक दिन विचार आया कि रात को जब अंधेरा होता होगा तो इस मूर्ति को यहां अकेले में डर नहीं लगता होगा (हंसिए मत, बचपन में मैं मान कर चलता था कि हर चीज़ जो दिख रही है सबमें जान है.. वक्त के साथ ये भरोसा मज़बूत ही हो रहा है)!!! फिर एक दिन अपने ममेरे भाई से पूछा कि ये किसकी मूर्ति है और इसके टूटे हाथ को जुड़वाते क्यों नहीं हो? वो हंसने लगा। बोला- हरिजनों का भगवान है।
शब्द अब ठीक से याद नहीं लेकिन यही कहा होगा। मैं चौंका हूंगा और खुद से ही बोला भी होगा- गज़ब.......... कोट-पैंट वाला भगवान!!
फिर उसने ही धीमे से कहा- इसका हाथ तो पिताजी ने ही तोड़ा था। (हम नाना जी को पिता जी कहते थे) 
मैंने ज़्यादा कुछ नहीं पूछा लेकिन खुद ही मान लिया कि चूंकि हमारे घर और हरिजनों की बस्ती दूर है, और क्योंकि हम लोगों का आपस में लेनादेना सिर्फ इतना है कि वो हमारे गाय-भैंसों का गोबर उठाकर ले जाते हैं तो ज़रूर अपने बीच कोई कंपटीशन टाइप है। बताने की ज़रूरत नहीं कि वो मूर्ति अंबेडकर की थी और मेरा ममेरा भाई डींग हांक कर जताना चाह रहा था कि दलित बहुल गांव में भी दलितों का भगवान हमारे मरज़ी के बिना साबुत नहीं खड़ा हो सकता। इसके बाद मैंने कई और गांव में हाथ टूटे हुए अंबेडकर देखे। धीरे-धीरे मेरे लिए नज़रअंदाज़ करना ज़रा मुश्किल होने लगा । एक सूटेड बूटेड आदमी हाथ में किताब लिए खड़ा है और लगभग हर गांव में उसका हाथ टूटा हुआ है.. आखिर माज़रा क्या है ? जिनका भगवान है वो हाथ क्यों नहीं जुड़वा रहे.... जब किसी से पूछा तो उसने कहा कि दिन में हाथ जुड़ता है तो अगली सुबह टूटा ही मिलता है.. कब तक जुड़वाएंगे...
समस्या वाकई गंभीर थी.. एक बच्चे के लिए तो और भी गंभीर। आखिर इस भगवान के हाथ में तो हथियार भी नहीं। गोल मटोल प्यारा सा दिखता है। कोट-पैंट-टाई के साथ किताब हाथ में लिए खड़ा है। खतरा जैसा तो कुछ महसूस होता नहीं फिर वो लोग जिनके घरों में सबसे ज़्यादा हथियार हैं इससे डरे हुए क्यों हैं। अब ठीक से याद नहीं लेकिन पापा से या किसी बड़े से पूछा था- ये किताब क्या है जो हाथ में लिए खड़े हैं ? 
जवाब मिला- संविधान।
मैंने पूछा- वो क्या है ?
बोले- देश उससे ही चल रहा है।। नियम हैं।
मैंने फिर पूछा- हां तो ये क्यों लिए खड़े हैं।
उन्होंने कहा- इन्होंने बनाया था।
मैं रुका नहीं- इन्होंने ही सारे नियम बनाए हैं ?
उन्होंने सोचा, गलती हो गई, बोले- हां, बहुत सारे लोग थे लेकिन लास्ट में इन्होंने ही लिखा था। बहुत पढ़े-लिखे थे ना।
अब तो समस्या और गंभीर हो चली थी। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि जो इन्हें अपना भगवान मानते हैं ना तो उनके पास इन जैसे कपड़े हैं और ना ही पढ़े-लिखे दिखते हैं। दूसरी तरफ ये हमारे भगवान नहीं लेकिन कोट-पैंट और किताब तो हमारे ही हिस्से में हैं.. आखिर ये पहेली क्या है ? भक्त भगवान जैसा नहीं.. और दुश्मन भगवान जैसे ही हैं!!
- किस्सा
जारी है...

बेनज़ीर का पहला भारत दौरा


हाल बेनज़ीर कट्टरपंथी पाकिस्तान में ताज़ी हवा का झोंका बनकर आई थी। यूं उनके होते हुए पाकिस्तान और भारत के संबंध बहुत खुशनुमा तो कतई नहीं रहे लेकिन फिर भी एक महिला को शासन करते देख एक मानवीय संतोष होता रहा। ये तस्वीर उस 19 साल की बेनज़ीर की है जो अपने पिता से सियासत का ककहरा सीख रही थी। वो अमेरिका से छुट्टी में पाकिस्तान लौटी थी और पिता के साथ शिमला घूमने चली आईं। उस वक्त बांग्लादेश के मामले पर करारी चोट खाकर भुट्टो किसी समझौते की राह तलाशने हिंदुस्तान बुलाए गए थे। उन्होंने शिमला में इंदिरा गांधी से मुलाकातें की। साल 1972 था और महीना जून का था। भारतीय मीडिया की नज़र में बेनज़ीर चढ़ गई। बेनज़ीर ने खुद अपनी किताब में लिखा है कि कैसे उनके पिता ने उन्हें नसीहत दी थी कि इस यात्रा के दौरान मुस्कुराना मत। भुट्टो नहीं चाहते थे कि हार से आहत पाकिस्तान अपने नेता की बेटी को हंसता मुस्कुराता देखकर ये सोचे कि बेनज़ीर को मुल्क की हार का गम नहीं। इसके उलट भुट्टो ये भी नहीं चाहते थे कि वो उदास दिखे क्योंकि इससे ये संदेश जाता कि पाकिस्तानी खेमे में मातम है। बेचारी बेनज़ीर ने पहला कूटनीतिक दबाव इस दौरे में ही झेला था। खुद बेनज़ीर भुट्टो ने बताया कि जब वो शिमला में हेलीपैड पर उतरीं तो उनके अस्सलाम वालेकुम का जवाब इंदिरा ने नमस्ते से दिया था।
बेनज़ीर को इस दौरे पर मीडिया की इतनी तवज्जो मिली थी कि खुद उनके पिता हैरान थे। मीडिया में उनके कपड़ों पर चर्चा चल रही थी। कमाल ये है कि वो ये सारे कपड़े अपनी दोस्त से उधार लेकर आई थी। वजह यही थी कि बेनज़ीर पश्चिमी परिधान पहनती थी लेकिन हिंदुस्तान के दौरे पर उन्हें परंपरागत पोशाक पहननी थीं। बेनज़ीर ने इस बात का भी खूब ज़िक्र किया है कि इस दौरे में इंदिरा उन्हें जिस ढंग से लगातार ऑब्ज़र्व करती थीं उससे वो बहुत नर्वस हो जाती थी।
(जानकारी बेनज़ीर की आत्मकथा और बीबीसी से)
(इति इतिहास श्रृंखला)


जैसी करनी, वैसी भरनी

तानाशाहों को भी लोकतंत्र अच्छा लगता है, बशर्ते वो उनके हक में हो। दुनिया के दो सबसे बड़े तानाशाह हिटलर और मुसोलिनी किसी राजशाही की पैदाइश नहीं थे। वो सभी समाज के गर्भ से निकले तत्कालीन नायक थे। जनता उनके साथ थी। उन्होंने उसी के दम से ताज़ गिराए, तख्त उछाले और फिर संसदों में घुसकर कभी हल्ले के साथ तो कभी चुपके से हर संस्था पर काबू पा लिया। अपने देश के लोगों की महत्वाकांक्षाओं को हवा देकर उन्होंने उसे आग की तरह खूब भड़काया। उस आग में हाथ तापे और फिर जब वक्त का पहिया घूमा... सम्मोहन टूटा... तो दोनों उसी आग में पतंगे की तरह जलकर भस्म हो गए। एक ने खुद को प्रेमिका के साथ गोली मार ली.. और लाश का ठिकाना तक नहीं बचा.. दूसरे को उसकी प्रेमिका समेत जान से मारकर लाश को चौराहे पर टांग दिया गया। कहने का मतलब इतना भर है कि तानाशाह कभी भी तानाशाह बनकर नहीं आता। उसके माथे पर भी ऐसा कुछ लिखा नहीं होता। वो अपार लोकप्रियता हासिल करने के बाद लोकतंत्र के घोड़े पर सवार हो राजपथ पर निकला करते हैं। चरम समर्थन तानाशाह का राजदंड होता है जिसके सहारे वो अजीब-अनोखे-नासमझी भरे-जानलेवा फैसले करता जाता है लेकिन सम्मोहित जनता उसका साथ देती है। पहलेपहल उससे सवाल नहीं होते, और उसके बाद वो सवालों की गुंजाइश नहीं छोड़ता। जिस दौर में राजनीति महत्वपूर्ण हो जाती है और राजनेता सबसे बड़े हीरो बन जाते हैं... ठीक उसी वक्त कलाकार अपने शेल में घुस जाते हैं। इक्का दुक्का अपनी प्रसिद्धि के दम पर विरोध उठाता भी है लेकिन सरकार के अनगिनत हाथ उसका गला घोंट ही देते हैं। पूरा युग गुज़रने के बाद जनता को याद आता है कि जब तराजू एक तरफ झुका हुआ था और कोई शिकवा तक करनेवाला नहीं था .. उस वक्त किसी अकेले आदमी ने खड़े होकर कहा था कि ये बेइमानी है।
दूसरे विश्वयुदध के चुनिंदा फोटो लगाने के सिलसिले में आज दो तस्वीरें लगा रहा हूं। एक है इटली के तानाशाह बेनिटो मुसोलिनी की वो तस्वीर जो 9 मई 1936 को खींची गई। मुसोलिनी अपने शीर्ष पर था। रोम के ऐतिहासिक महल की बालकनी में खड़े होकर वो जनता का अभिवादन कर रहा है। दूसरी तस्वीर सिर्फ 9 साल बाद 29 अप्रैल 1945 की है। इटली की सेनाओं की हार के बाद बचकर भागने की कोशिश करता मुसोलिनी पकड़ लिया जाता है और उसे गिरफ्तार करके गोली मार दी जाती है। 29 अप्रैल को उसकी लाश एक गैस स्टेशन के पास लाकर टांग दी जाती है। उसी के देशवासियों ने नफरत से भरके उस लाश पर पत्थर फेंके, थूका और गालियां दीं।
(इति इतिहास श्रृंखला)