डायरी का फटा पन्ना..
कई सालों से ना होली है और ना दीवाली है..कई शहर बदल गए,सोच बदल गई और मैं भी शायद गुज़रते वक्त के साथ बदलता चला गया.. याद आता है कि जान-पहचानवालों की एक बड़ी भीड़ से कैसे उकता-सा गया था मैं..थोड़ा घबराने सा लगा था..अचानक से लगने भी लगा था कि सब तो दौड़े चले जा रहे हैं और मैं यूं ही कहां अकेला भटक रहा हूं..कहीं ऐसा ना हो कि एक दिन इस बियाबां में मैं निरा अकेला ही रह जाऊं..और फिर शायद इसीलिए सब पीछे छोड़ तीन साल पहले इस शहर में भाग आया था.. हां, भाग ही तो आया था..
यूं दोस्त वहां भी कहां थे भला..वो सब जान-पहचान के लोग थे..वो मुझे सुनते थे,मैं उन्हें सुनता था..वो मेरे साथ चलते थे,मैं उनके साथ चलता था..वो बैठ जाते थे तो घंटों मैं भी बैठा रहता था लेकिन हम जानते भी थे कि एक वक्त के बाद हम अपने -अपने घरों को हो लेंगे और फिर किसने क्या कहा-क्या सुना उसे याद रखने की कोई ज़रूरत नहीं पड़ेगी।
एक ही सड़कें,एक जैसी गलियां और एक ही जैसे लोग..नीरसता थी तो रस ढूंढने चला आया..मगर हाय री कुदरत..रिपीटीशन कहां पीछा छोड़ता..सो अब यहां भी मन नहीं लगता.. वो कहा था ना किसी ने- उन्हें नफरत हुई सारे जहां से,नई दुनिया कोई लाए कहां से...
मगर जो भी था..वो होली-दीवाली अपने से थे..यहां तो अभी भी एक अजनबीपन सा है। कुछ तो हम ऐसे और ऊपर से हमें जो मिलते रहे वो लोग भी ऐसे.. मज़ा नहीं आता अब सुनकर कि होली आ गई है,दीवाली आ गई है.. हमें तो कुछ नया करना नहीं है..वो दिन भी बीतेगा जैसा आज का बीत गया है..दिन कुछ और ढंग से तो तब बीते जब साथ में दोस्त हों.. ज़िंदगी में दोस्त नहीं हैं ना,सिर्फ जान-पहचान के लोग हैं...
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