वो चली गई!
वो जब आनेवाली थी तो मुझे बुरा लगा था..मैं नहीं चाहता था वो आए..दरअसल उसकी बनावट से दिक्कत थी मुझे। दिक्कत उसके अपमार्केट ना माने जाने से भी थी..सोसायटी में उसकी वैसी इज़्ज़त भी तो नहीं थी जैसी मैं चाहता था। जब पापा ने उसको घर लाने का आखिरी फैसला कर लिया तो फिर मैं भी चुप बैठ गया। सोच लिया कि जो कर रहे हैं करने दूंगा..मन में लेकिन ठान लिया कि मैं उससे दूरी बनाए रखूंगा..इतना तो मैं कर ही सकता था ना..
फिर एक दिन वो आई..घर में सबने उसका स्वागत किया और कुछ बेमन से मैंने भी..हालांकि वो इतनी भी बुरी नहीं थी जितनी मैंने सोचा था। घर के नए सदस्य की तरह स्वागत हुआ उसका। बड़ी मुहब्बत दी सबने उसे..मम्मी-पापा तो फूले नहीं समाए थे.. फिर मैं भी उससे दूर कैसे रहता। कुछ दिन ज़रा खिंचे-से रहने के बाद मैंने उसका होना मंजूर कर लिया। एक बार मंजूर किया तो देखा कि उसे तो मुझसे कोई शिकायत थी ही नहीं..बस फिर तो उससे मुझे इश्क हो गया। बचपन में कितने मुश्किल सफर उसके साथ तय किए,कितनी बातें हुईं उससे और मैं उसके साथ ही जवान होने लगा। सच वो मेरे बचपन की गवाह थी। वो घर पर रहती तो मैं उसके दामन में खेला ..हम बाहर निकलते तो उसको छोड़ने का मन ना होता..हमेशा साथ होता। वो मेरे साथ थी इसका घमंड सा भी था। कोई उसकी बुराई करता तो बहुत अखरता था। मन करता था कि सामनेवाले को उठा कर फेंक दूं। मम्मी को तो मुझसे भी ज़्यादा गुस्सा आता। कुछ भी बर्दाश्त था मगर उसकी बुराई नहीं। अब उससे मेरी दोस्ती थी। उसकी ज़रा तबियत बिगड़ती तो पापा परेशान हो जाते,मम्मी बार-बार उसके बारे में पूछती। जब तक उसकी तबीयत नहीं सुधरती हमें भी कहां चैन आता। उसको हमेशा हंसते-मुस्कुराते और ठुमकते चलते देखते थे इसलिए जब तक वो ऐसा ना करती तो हम लोगों की पेशानी पर बल पड़े रहते।
फिर मैंने शहर बदला। मैं नौकरी करने दूसरे शहर में चला गया। वो घर पर पापा-मम्मी के साथ रही। हर हफ्ते जब भी घऱ लौटता तो उसका होना मुझे अच्छा लगता। आदत थी उसके होने की, हालांकि उसकी अहमियत अब कम हो चली थी। उससे कोई गिला नहीं था हमें और उसे भी कोई शिकवा नहीं था हमसे। फिर जब इस हफ्ते मैं लौटा तो देखा वो घर पर नहीं थी। यूं पिछले हफ्ते भी नहीं थी लेकिन मैंने जल्दबाज़ी में उसके बारे में कुछ पूछा नहीं। अब लेकिन पूछा तो मालूम चला कि वो हमेशा के लिए चली गई । 13-14 साल तक साथ रहने के बाद वो हमेशा के लिए हमसे बिछड़ गई..मैं तो उसे आखिरी बार देख भी नहीं सका। क्या कर सकता था..जो उसे घर लाए थे उन्होंने ही उसे घर से निकालने का फैसला कर लिया था..क्या कहता पापा को..अब ध्यान से सोचता हूं तो याद आता है कि उसकी तो कोई तस्वीर भी नहीं है हमारे पास.. वो हमारी प्यारी पुरानी मारुति वैन थी..
खूबसूरत प्रस्तुति...मंगलकामनाओं सहित !
जवाब देंहटाएंTouching..काश आपकी ही तरह वो बेजान चीज़ आपके साथ अपने रिश्ते को लिख पाति ।
जवाब देंहटाएंवाकई प्रतिभा जी..
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन उम्दा लेख ।
जवाब देंहटाएंआपने तो पुराने वाले कुछ बीते बरस ही याद दिला दिए। बहुत खूब लिखा।
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