शनिवार, 29 मार्च 2014

एक पॉलीटिकल लघुकथा


पुराने वक्त की बात है। किसी सुल्तान ने एक बहुत बड़ा हिस्सा अपने दुश्मनों से जंग में जीत लिया। उसकी रियासत क्षेत्रफल में इतनी बड़ी हो गई कि ना तो वो रियासत के हर हिस्से तक विकास योजनाओँ को लागू करवा पा रहा था और ना ही सीमाओँ की सुरक्षा ठीक से हो पा रही थी। एक दिन वो शिकार खेलने रियासत की सीमा तक चला गया और वहां अपने साथियों से बिछड़कर एक गांव में जा पहुंचा। एक झोंपड़ी में उसने रात भर के लिए आश्रय मांगा मगर अपना असली परिचय छिपा गया। उस झोंपडी की मालकिन एक बुढिया थी। सुल्तान ने बातों में ही बुढिया से पूछा कि इस गांव में सबके हालचाल कैसे हैं तो बुढिया ने बताया कि यहां सीमापार से लुटेरों का खतरा बना रहता है और इस इलाके की तरक्की भी नहीं हो रही। सुल्तान ने बहाना बनाते हुए कहा कि 'बेचारे सुल्तान पर इतनी बडी रियासत का बोझ है वो क्या क्या संभाले,हर जगह तो जा भी नहीं सकता ना।' बुढिया इस तर्क के सामने लाजवाब हो गई।उसने रात को अपने अतिथि के सामने खिचड़ी परोसी। भूख से तड़प रहे सुल्तान ने खूब खाया मगर काफी सारा खाना थाली में छोड़ भी दिया। बुढिया ने जब बचा हुआ खाना देखा तो यूं ही ताना मारा- 'तू भी पगले हमारे सुल्तान की तरह ही हो रहा है। खिचड़ी के स्वाद में बावला होकर तूने थाली में और खिचड़ी ले तो ली मगर खा नहीं सका ऐसे ही राज करने के लालच में सुल्तान ने इतनी ज़मीन जीत तो ली पर संभल उससे भी नहीं रही। जब संभल नहीं रहा तो राज करने का हक भी क्यों हो। नुकसान तो हमारा हो रहा है ना।'
तो मुलायम,माया,कलराज.राजनाथ आदि-इत्यादि डियर...यूपी की जनता पर रहम करो...इस प्रदेश का बंटवारा कर दो...बस एक अहसान करना कि बंटवारा मज़हबी,जातीय,वोटबैंक,ऐतिहासिक धारणाओं आदि आधार पर ना करके योजनागत विकास को दिमाग में रखकर करना। हालांकि तुम पर शक है मगर फिर भी उम्मीद करने के पैसे नहीं लगते। 

1 टिप्पणी:

  1. हालांकि मैं कभी भी किसी देश या प्रदेश के और टुकड़े करने के पक्ष में नहीं रहा लेकिन इस व्यंग्य-कथा ने सच में सोचने पर मज़बूर कर दिया। 'ओवरऑल' देखने की सोच के बजाय अंतिम आदमी को देखें तो ही सही विचार उत्पन्न हो। बहुत खूब लिखा।

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