मंगलवार, 8 जुलाई 2014

गुज़र चुके सब मौसम

गुज़र चुके सब मौसम सूखा पेड़ होकर रह गया
हज़ारों यादों के पत्तों का मैं ढेर होकर रह गया

हर एक किस्से के साथ मैं कुछ पीछे छूटता रहा
सियाह-रातों की ना हुई जो वो सहर हो कर रह गया

तुम करती रही मुझसे मुहब्बत ये ही गनीमत थी गुलाब
मेरी वफा का असर ज़िंदगी पर तुम्हारी ज़हर जैसा हो गया

सूने-वीरान घर की दीवारों पर भटकती हो कोई बेल जैसे
मेरी कमससाती रुह के लिए जिस्म ही जेल जैसा हो गया

हंसते-गाते गुज़रते थे काफिले बरसों पहले जहां से
उस शहर का उजड़ना तूफानों के लिए खेल जैसा हो गया


1 टिप्पणी: