सोमवार, 31 मार्च 2014

मार्च की बात..

बस यूं ही एक चुहल


ये मार्च अभी-अभी गुज़रने वाला है। मार्च की आखिरी तारीख की सुबह है। इस साल जब ये महीना शुरु हुआ तो लग ही रहा था कि ख़राब गुज़रेगा..उतना ख़राब या अच्छा तो नहीं गुज़रा मगर हां..खटका अभी भी बाकी है क्योंकि आखिरी तारीख अभी पूरी तरह गुज़री नहीं। पहली तारीख की सुबह तन्ख्वाह एकाउंट में जमा होने का मैसेज मोबाइल पर आया था। मैं खुश था। नौकरी की ज़िंदगी में तन्ख्वाह या ऑफ का ही दिन होता है जो खुशी लाता है वरना तो मशहूर एंकर रवीश के शब्दों में..जो है सो हइये है... एकाउंट में पैसे पहुंचे ही थे और इन्हें खर्च करने की योजनाएं मगज़ में उमड़नी-घुमड़नी शुरु हुई थी कि ब्रेक लगा। हां..ब्रेक लगा..योजनाओं और बाइक दोनों  को  !! चलती बाइक से मोबाइल जो जेब में से फिसला तो फिर सड़क पर गिर दो टुकड़ों में बंट गया। किस्मत उतनी खराब नहीं थी कि मोबाइल खत्म हो जाता मगर उतनी अच्छी भी नहीं थी कि स्क्रीन ना टूटती। कुल जमा 7 हज़ार रुपए खर्च हुए तब समझ आ गया कि खर्चों को पोस्टपोन कर देना ठीक रहेगा।
बहरहाल ये तो मेरी रामकहानी है। अपने कई दोस्तों और सहयोगियों से भी सुना कि यार ये मार्च कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया इस बार! अब मार्च जो कहीं सड़क पर टहलता मिलता तो पूछता ज़रूर कि भाई यूं लंबे हुए जा रहे हो..अब रुक भी जाओ बॉस। उसे ना मिलना था और ना वो मिला। अपनी रफ्तार से गुज़र रहा था। इस रफ्तार में जितना देख सका तो पाया कि बच्चों के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द भी यही महीना तो था। दसवीं-बारहवीं की परीक्षाओं का महीना है मार्च..अपने दिन याद आते हैं तो सिहरन आज भी दौड़ जाती है। जाने कैसे तो लोग कह देते हैं कि..आह क्या सुहाने थे वो बचपन के दिन। मुझे तो बड़ी खुशी मिलती है सोचकर कि वे दिन फिर ना आएंगे। अच्छा हो या बुरा दोनों ही तरह का वक्त कुछ यादें देकर गुज़र जाता है। होली थी..फेसबुक पर हर पोस्ट के नीचे लिखता रहा..हो-ली है...हो-कर रहेगी..!! देखकर मज़ा आया कि टैगलाइन को दोस्तों ने मशहूर कर दिया। मुझे महसूस कर खुशी ही हुई कि चलो दिल्ली आकर कुछ ना किया मगर इतना तो किया कि एकाध टैगलाइन फेसबुक पर ही मशहूर हो गई। अलबत्ता थैंकलेस जॉब की तरह क्रेडिटलेस रचना ही बनकर वो गुज़र गई। मार्च सरकारी अफसरों और प्राइवेट कंपनियों दोनों को ही थका देता है। यही साल है जब नियम-कायदों में बंधे बनिए अपना लेखाजोखा निपटाते हैं और जहां जिसको हिसाब देना होता है..झूठा-सच्चा बनाकर दे देते हैं। मुल्क में सियासत का सबसे बड़ा मेला भी लगा है। सियासी कुंभ है। देश की जनता का वक्त ना खराब हो तो पांच साल में एक ही बार आता है। इस मेले की वजह से चिल्ल-पों मची है। क्या नेता और क्या अभिनेता..जिसे देखिए व्यस्त दिख रहा है..दिख रहा है मगर कितना वाकई है नहीं पता। 
मुझे लगता है ये सब तमाम वजहें थीं जिन्होंने मार्च को लंबा कर दिया..कुछ ज़्यादा ही। खैर..जो भी था और जैसा भी था..मार्च में ब्लॉग बनाया। ब्लॉग पहले भी बनाए थे मगर इससे उम्मीद है कि ये भी मार्च की तरह कुछ लंबा चलेगा। चलो भई मार्च..फिर आना...तुम तो आओगे ही..अगर हम रहे तो मिलेंगे तुमसे...
(सुबह 4.50)

रविवार, 30 मार्च 2014

चलती-फिरती अचार की दुकान!

धूम मचा लेSSSS  धूम मचा ले धूम..

जी हां भाइयों और बहनों..12 सालों तक हर जगह धूम मचाने के बाद अब सुशील कुमार अचार वाले की चलती-फिरती दुकान आपकी गली में.. नींबू का अचार, आम का अचार, टीट का अचार, मिर्च का अचार और हर तरह का मिक्स अचार!! अचार खराब होने पर उतना ही अचार मुफ्त ले जाइए। जल्दी कीजिए, कहीं ऐसा ना हो कि हमारी चलती-फिरती दुकान आगे निकल जाए और आप पछताते रह जाएं। हमारे यहाँ शादी और पार्टी के ऑर्डर भी बुक किए जाते हैं।

रेशमी सलवार कुरता जाली का..रूप सहा नहीं जाए नखरेवाली का..होSSS

शनिवार, 29 मार्च 2014

 दबाए चले जाइयो..


हमारे मोहल्ले में एक लड़का रहा करता था..मोंटू। अपने यहां कोई पढ़ता-लिखता था नहीं लेकिन उसने जाने कैसे बी.टेक में एडमिशन ले लिया। मोंटू के नाम का हंगामा मच गया। घर-परिवार,पड़ोस और रिश्तेदारी में भी 'नालायक' बच्चों को मोंटू के नाम से ताने दिए जाने लगे। मोंटू ने बी.टेक क्या पकड़ी बाकी सबके हौसले उसके सामने पस्त। कुछ ही अरसे बाद एक दिन हमें कंप्यूटर पर कुछ समझ ना आया तो हमने मोंटू से पूछ लिया..मोंटू ने भी कुछ देर समझा मगर उसे अपने ज्ञान की हद से बाहर पाया। आखिर मोंटू ने हमको सुझाव दिया कि देख भई..ये फॉर्मूला समझ..यो अंग्रेज्जी में जो भी कमांड देवै,बस यस पे दबाए चले जाइयो..सब ठीक हो जावैगा..हम भी नूइ करैं सब हो जावै...
मैं सन्नाटे में मोंटू को देखता रह गया और वो मुझे अचानक ही छोटा मोंटेक और छोटा मनमोहन जैसा लगने लगा!! बस अमरिक्का की कमांड पे यस दबाए चले जाओ..सब हो जावैगा..

डी.के.बोस..


दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में मशहूर गीतकार गुलज़ार आए हुए थे। हॉल खचाखच भरा हुआ था और हर कोई उनको सुनना चाहता था। गुलज़ार हर सवाल का जवाब बड़े ही बेबाक हो कर दे रहे थे। तभी बात चली फिल्मी गानों के गिरते स्तर की। गानों में इस्तेमाल होनेवाले द्विअर्थी शब्दों पर एक सवाल उनकी ओर दागा गया। गुलज़ार साहब ने भी वही पुराना जवाब दिया जो अक्सर इस सवाल के जवाब में वो दिया करते होंगे - "हम वो ही लिखते हैं जो पब्लिक की डिमांड होती है।" उनकी इस बात पर हॉल में सबसे पीछे से एक सवाल अक्खड़ लहजे में उभरा- "यो पब्लिक के मांग री है इसका पता आप फिलमवालों कू कैसे लागै जी....कोई सपणा-वपणा आवै के??" सवाल और अंदाज़ दोनों ही ऐसे थे कि इसके बाद गुलजार साहब की सारी बेबाकी पानी भरने चली गई। सच ही तो है, घटिया गाने लिखने-बनाने वाले हर बात पब्लिक के मत्थे मढ देते हैं मगर इनके पास क्या ज़रिया है मालूम करने का कि कोई कब क्या मांग रहा है,कुछ भी तो नहीं। बस अपनी सनकी कारनामों को पब्लिक की डिमांड पर मढ दो और बिना जवाबदेही के मुनाफा बटोरते फिरो। यही हाल टीवी न्यूज़ का है और यही फॉर्मूला अपनाते हैं टीवी चैनल पर डेली सोप परोसनेवाले। लोगों के बारे में परसेप्शन बनाकर कुछ भी ऑन एयर करते हैं और सवाल पूछने पर इनसे पीड़ित जनता को ही आरोपी बना कटघरे में खड़ा कर देते हैं। 
  

लहर से बचाव..


चुनाव मैंने भी लड़े हैं  ;) । मेरा पहला चुनाव था सातवीं क्लास में। माॅनीटर बनने के लिए वोटिंग हो रही थी।स्कूल में नया था और ना जाने क्या सोचकर मैं भी उम्मीदवार बन गया। एक दोस्त के पक्ष में लहर ऐसी चली कि अपना वोट भी उसी को दे दिया। गिनती हुई तो एक वोट अपने हिस्से में आया था। कुछ वक्त बाद मालूम पड़ा कि किसी लड़की ने दिया था..मुमकिन भी था क्यों कि लड़कों के वोट तो सामने ही पड़ते देखे थे। खैर, जब तक स्कूल में रहा उस वोटर के बारे में बस अंदाजा ही लगाता रहा..पक्के तौर पर कुछ मालूम नहीं पड़ा । आज उसके बारे में सोचता हूँ तो हैरान होता हूँ..क्या ज़बरदस्त लहर थी वो जिसमें उम्मीदवार होने के बावजूद मैं नहीं बच सका था ,मगर तब भी तुमने मुझे वोट दिया था। यही वो हिम्मत और दिलोदिमाग से फैसला करने की ताकत है जो मुझे आज भी किसी लहर में फंसने से बचा लेती है।

फेसबुक पर ले-दे!!


फेसबुक की लंबे वक्त तक उपेक्षा करने के बाद एक नामी-गिरामी संपादक महोदय अंततः यहाँ अवतरित हुए। उनका वर्षों का तजुर्बा रोज-रोज पोस्ट की शक्ल लेने लगा मगर उफ्फ..ये मुआ फेसबुक नौकरी जितना आसान कहां!! ;) (बशर्ते आप सिर्फ फूल-पत्ती ही ना चिपकाते रहते हों) कुछ तो संपादक जी की कीर्ति और कुछ उनके लेखन का जलवा..फ्रेंडलिस्ट लंबी होती चली गई। अब लिस्ट तो होती है शिवजी की बारात..भांति-भांति के लोग भिन्न-भिन्न उद्देश्य से उनके साथ हो लिए। संपादक महोदय रोज कुछ लिखकर निकल लें और बाद में मुरीद आपस में कमेंट की तलवार भांजें..बीच-बीच में संपादक जी लाइकरूपी ग्लूकोन-डी उनकी जीभ पर छिड़कते जाएं ताकि जोश कम ना हो।उस रोज़ एक पोस्ट पर जंग ने रफ्तार पकड़ी ही थी कि तभी एक "ओवरस्मार्ट नया नवेला जोशीला संघी टाइप" किशोर बिना संपादकजी का पूरा परिचय जाने जंग में उतर गया। उसने आंय-बांय-शांय दो-एक सरसराते कमेंट संपादक जी की तरफ चलाए। इधर संपादक जी ने भी नवयुवक को जवाब दिया। नवयुवक के विरोध को तवज्जो मिली तो उसने फिर पूरे जोश से लड़ाई छेड़ दी। जब कमेंट और प्रतिकमेंट लंबे खिंच गए तो संपादक जी का परिचय ना जानने वाला लड़का खीझ गया। मैं भी ये सारा युद्ध संजय बन देख रहा था। नई उम्र के योद्धा ने फाइनली उनको लिखा कि मुझे लगता है आपको अभी देश में घूमने की जरूरत है.. अध्ययन की भी काफी आवश्यकता है।आप जैसे अधकचरे लोगों से राष्ट्र को नुकसान हो रहा है वगैरह वगैरह...!!
इधर मैं सन्नाटे में...संपादक जी गायब...उनके प्रशंसक शांत...चारों तरफ त्राहिमाम्!
गनीमत है कि बात आगे नहीं बढ़ी। शायद किसी ने लड़के को इनबाॅक्स में समझाया होगा कि हे आर्यवीर! जिन्हें तुम बहस का सामान समझ रहे हो उनकी कई किताबें मार्केट में हैं..वो हर दूसरे दिन अखबारों में छपते हैं..देश तो है ही, विदेश भी कई दफे ना सिर्फ घूमे हैं बल्कि बारीकी से कवर करते रहे हैं । तुम जितनी उम्र के तो उनके कई पोते हैं! हे शूरवीर..तुम जैसों को ये रोज दफ्तर में नौकरी पर रखते और निकालते रहे हैं। आज भी मूड होता है तो गेस्ट लेक्चर दे आते हैं।
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मुझे फेसबुक की यही बात पसंद और नापसंद दोनों है। यहाँ कोई वरिष्ठता-कनिष्ठता नहीं..आपके शब्द आपकी योग्यता तय करेंगे लेकिन वहीं दूसरी तरफ अपनी बुद्धि का सिक्का जमाने के लिए ऐसे लोग भी सबको नसीहत पिलाने लगते हैं जो खुद अपनी ही नसीहत नहीं मानते।
(एक सच्ची फेसबुक कहानी..नमक-मिर्च मेरी मर्जी अनुसार!! © )

डायरी का फटा पन्ना..


कई सालों से ना होली है और ना दीवाली है..कई शहर बदल गए,सोच बदल गई और मैं भी शायद गुज़रते वक्त के साथ बदलता चला गया.. याद आता है कि जान-पहचानवालों की एक बड़ी भीड़ से कैसे उकता-सा गया था मैं..थोड़ा घबराने सा लगा था..अचानक से लगने भी लगा था कि सब तो दौड़े चले जा रहे हैं और मैं यूं ही कहां अकेला भटक रहा हूं..कहीं ऐसा ना हो कि एक दिन इस बियाबां में मैं निरा अकेला ही रह जाऊं..और फिर शायद इसीलिए सब पीछे छोड़ तीन साल पहले इस शहर में भाग आया था.. हां, भाग ही तो आया था..

यूं दोस्त वहां भी कहां थे भला..वो सब जान-पहचान के लोग थे..वो मुझे सुनते थे,मैं उन्हें सुनता था..वो मेरे साथ चलते थे,मैं उनके साथ चलता था..वो बैठ जाते थे तो घंटों मैं भी बैठा रहता था लेकिन हम जानते भी थे कि एक वक्त के बाद हम अपने -अपने घरों को हो लेंगे और फिर किसने क्या कहा-क्या सुना उसे याद रखने की कोई ज़रूरत नहीं पड़ेगी।
एक ही सड़कें,एक जैसी गलियां और एक ही जैसे लोग..नीरसता थी तो रस ढूंढने चला आया..मगर हाय री कुदरत..रिपीटीशन कहां पीछा छोड़ता..सो अब यहां भी मन नहीं लगता.. वो कहा था ना किसी ने- उन्हें नफरत हुई सारे जहां से,नई दुनिया कोई लाए कहां से...
मगर जो भी था..वो होली-दीवाली अपने से थे..यहां तो अभी भी एक अजनबीपन सा है। कुछ तो हम ऐसे और ऊपर से हमें जो मिलते रहे वो लोग भी ऐसे.. मज़ा नहीं आता अब सुनकर कि होली आ गई है,दीवाली आ गई है.. हमें तो कुछ नया करना नहीं है..वो दिन भी बीतेगा जैसा आज का बीत गया है..दिन कुछ और ढंग से तो तब बीते जब साथ में दोस्त हों.. ज़िंदगी में दोस्त नहीं हैं ना,सिर्फ जान-पहचान के लोग हैं...

सत्यसाईँ और मैं


मैं कम से कम इतना छोटा तो था ही उन दिनों कि पैंट नहीं निकर पहना करता था और जो मेरे हाथ में थी वो पत्रिका शायद इंडिया टुडे ही थी। मैंने उस शख्स के बारे में पहले कभी सुना भी नहीं था जिसके बारे में वो पत्रिका जबरदस्त पोलखोल कर रही थी। हर पेज पर सनसनी या सच जो भी था, पूरे विश्वास के साथ लिखा गया था। मैं बात कर रहा हूं पुट्टूपर्थी के स्वर्गीय सत्य साईं बाबा की। पत्रिका बेहद बेदर्दी से उनका सैक्स स्कैंडल खोल रही थी। काफी लोगों के बयान थे कि सत्य साईं बाबा ने कुंडलिनी जागरण के नाम पर उनके साथ कैसे-क्या किया। ये ही मेरा सत्य साईं बाबा से पहला परिचय था। उसके बाद कुछ दक्षिण भारतीयों के घर में मैंने उनकी विशालकाय तस्वीरें टंगी देखीं। लोगों को उनके सेवाकार्यों के बारे में बताते भी सुना पर टीवी पर उनको ज़्यादातर जादू करते देखा और साथ में उस जादू के लिए चैनलवालों की ये बातें भी सुनीं कि ये ढोंग है,ये पाखंड है,ये आंखों का धोखा है।
कुल मिलाकर न्यूज़ चैनलों ने जब कभी सत्य साईं को दिखाया बस हाथों से भभूत पैदा करते दिखाया और लगे हाथ उस जादू की लानत-मलानत भी करते रहे। मैंने टीवी पर उनके ट्रस्ट द्वारा चलाये जा रहे समाजसेवा के किसी भी कार्य पर कोई कार्यक्रम चैनलों को चलाते नहीं देखा। चैनलों ने तो उनके जीते जी बस उनके जादू पर कीचड़ ही उछाला। मगर आज जब सत्य साईं नहीं रहे तो ये ही चैनल उनके जादू को ढोंग नहीं कह पा रहे हैं। ये सवाल नहीं उठा पा रहे कि 40 हज़ार करोड़ का साम्राज्य किन स्रोतों से खड़ा हुआ। ना ही शक ज़ाहिर कर रहे कि शिर्डी के साईं का अवतार होने का उनका दावा कोई सच क्यों माने। सब चैनल एक पखवाड़े से रोती धुनें बजाकर उनके महिमामंडन में जुटे हैं। उनके हाई प्रोफाइल भक्तों की बाइट्स लेकर बाबा का कद बढाने में लगे हैं। भूत प्रेत की कहानियां बांचने के लिए मशहूर एक चैनल उनके सबसे प्रभावशाली एंकर से देर रात सत्य साईं के जादू दिखवा रहा है। ये कहने में भी संकोच नहीं कर रहा है कि वो इस युग के जीते जागते भगवान थे।
क्यों कल तक साईं के जादू को भ्रम कहनेवाले उनके जादू को फैलाने में जुटे हैं। असलियत है कि बाबा टीआरपी गेनर हैं। कोई चैनल इस वक्त उनके जादू की हवा निकालने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है। सबका फायदा इसी में है कि उनको भगवान बनाकर कैश कर लो। देशभर में फैले उनके करोड़ों अनुयायियों को उनकी तबीयत के बुलेटिन बांचते रहो और दर्शकों को खुद से चिपकाए रखो। उन पर खूब पॉजीटिव खबरें चलाओ क्योंकि माहौल कुछ ऐसा है कि उनके जादू के खिलाफ चलती खबरों को कोई भाव नहीं देगा। तो जिस खबर को भाव मिल सकता था वो खूब चलीं और उम्मीद है कि उन्होंने कारोबार भी अच्छा किया होगा।
सत्य साईं देश की बड़ी हस्ती थे और उनके ट्रस्ट ने समाज के लिए बहुत काम किया जिसे हमेशा मीड़िया नज़रअन्दाज़ करता रहा। मीड़िया के लिए आकर्षण बस उनका जादू था जिसके फुटेज को ट्रीट( एडिटिंग से तीर और गोले लगाकर) करके वो हमेशा दिखाता रहा और फिर अंधविश्वास के खिलाफ जंग के नाम पर उस जादू की बखिया उधेड़ता रहा। मगर आज वही मीड़िया लोगों के अंधे विश्वास को सहलाने और पुचकारने में लगा है। क्यों मीडिया ने पहले उनके समाजसेवा के कार्यों को नहीं दिखाया और आज वही मीडिया क्यों उनको अवतारी कहने लगा। कभी तो अन्ना जैसे लोगों के पक्ष मे खड़े होकर ये मीडिया खुद के लिए सम्मान बटोरता है और कभी ये ही मीडिया टीआरपी के लिए ऐसा दब्बूपन दिखाता है कि महसूस होता है कि ये भला समाज को क्या रास्ता दिखाएंगे जिनकी दिशाएं खुद टेलीविज़न रेटिंग प्वाइंट तय करते हैं।
बेशक बाबा की बनती-बिगड़ती तबीयत बड़ी खबर थी मगर मीड़िया यहीं नहीं रुका। उसने बाबा को अवतारी बना छोड़ा। उनके समाजसेवा के कार्यों को तो बताया नहीं बस उनको चमत्कारी बना दिया। काश सनसनी बेचता मीड़िया असल बातों पर भी लोगों का ध्यान आकर्षित करे...काश..
(25 अप्रैल 2011- फेसबुक पर पोस्ट)

बाबा चिर विश्राम में...

एक पॉलीटिकल लघुकथा


पुराने वक्त की बात है। किसी सुल्तान ने एक बहुत बड़ा हिस्सा अपने दुश्मनों से जंग में जीत लिया। उसकी रियासत क्षेत्रफल में इतनी बड़ी हो गई कि ना तो वो रियासत के हर हिस्से तक विकास योजनाओँ को लागू करवा पा रहा था और ना ही सीमाओँ की सुरक्षा ठीक से हो पा रही थी। एक दिन वो शिकार खेलने रियासत की सीमा तक चला गया और वहां अपने साथियों से बिछड़कर एक गांव में जा पहुंचा। एक झोंपड़ी में उसने रात भर के लिए आश्रय मांगा मगर अपना असली परिचय छिपा गया। उस झोंपडी की मालकिन एक बुढिया थी। सुल्तान ने बातों में ही बुढिया से पूछा कि इस गांव में सबके हालचाल कैसे हैं तो बुढिया ने बताया कि यहां सीमापार से लुटेरों का खतरा बना रहता है और इस इलाके की तरक्की भी नहीं हो रही। सुल्तान ने बहाना बनाते हुए कहा कि 'बेचारे सुल्तान पर इतनी बडी रियासत का बोझ है वो क्या क्या संभाले,हर जगह तो जा भी नहीं सकता ना।' बुढिया इस तर्क के सामने लाजवाब हो गई।उसने रात को अपने अतिथि के सामने खिचड़ी परोसी। भूख से तड़प रहे सुल्तान ने खूब खाया मगर काफी सारा खाना थाली में छोड़ भी दिया। बुढिया ने जब बचा हुआ खाना देखा तो यूं ही ताना मारा- 'तू भी पगले हमारे सुल्तान की तरह ही हो रहा है। खिचड़ी के स्वाद में बावला होकर तूने थाली में और खिचड़ी ले तो ली मगर खा नहीं सका ऐसे ही राज करने के लालच में सुल्तान ने इतनी ज़मीन जीत तो ली पर संभल उससे भी नहीं रही। जब संभल नहीं रहा तो राज करने का हक भी क्यों हो। नुकसान तो हमारा हो रहा है ना।'
तो मुलायम,माया,कलराज.राजनाथ आदि-इत्यादि डियर...यूपी की जनता पर रहम करो...इस प्रदेश का बंटवारा कर दो...बस एक अहसान करना कि बंटवारा मज़हबी,जातीय,वोटबैंक,ऐतिहासिक धारणाओं आदि आधार पर ना करके योजनागत विकास को दिमाग में रखकर करना। हालांकि तुम पर शक है मगर फिर भी उम्मीद करने के पैसे नहीं लगते। 

वो चली गई!


वो जब आनेवाली थी तो मुझे बुरा लगा था..मैं नहीं चाहता था वो आए..दरअसल उसकी बनावट से दिक्कत थी मुझे। दिक्कत उसके अपमार्केट ना माने जाने से भी थी..सोसायटी में उसकी वैसी इज़्ज़त भी तो नहीं थी जैसी मैं चाहता था। जब पापा ने उसको घर लाने का आखिरी फैसला कर लिया तो फिर मैं भी चुप बैठ गया। सोच लिया कि जो कर रहे हैं करने दूंगा..मन में लेकिन ठान लिया कि मैं उससे दूरी बनाए रखूंगा..इतना तो मैं कर ही सकता था ना..

फिर एक दिन वो आई..घर में सबने उसका स्वागत किया और कुछ बेमन से मैंने भी..हालांकि वो इतनी भी बुरी नहीं थी जितनी मैंने सोचा था। घर के नए सदस्य की तरह स्वागत हुआ उसका। बड़ी मुहब्बत दी सबने उसे..मम्मी-पापा तो फूले नहीं समाए थे.. फिर मैं भी उससे दूर कैसे रहता। कुछ दिन ज़रा खिंचे-से रहने के बाद मैंने उसका होना मंजूर कर लिया। एक बार मंजूर किया तो देखा कि उसे तो मुझसे कोई शिकायत थी ही नहीं..बस फिर तो उससे मुझे इश्क हो गया। बचपन में कितने मुश्किल सफर उसके साथ तय किए,कितनी बातें हुईं उससे और मैं उसके साथ ही जवान होने लगा। सच वो मेरे बचपन की गवाह थी। वो घर पर रहती तो मैं उसके दामन में खेला ..हम बाहर निकलते तो उसको छोड़ने का मन ना होता..हमेशा साथ होता। वो मेरे साथ थी इसका घमंड सा भी था। कोई उसकी बुराई करता तो बहुत अखरता था। मन करता था कि सामनेवाले को उठा कर फेंक दूं। मम्मी को तो मुझसे भी ज़्यादा गुस्सा आता। कुछ भी बर्दाश्त था मगर उसकी बुराई नहीं। अब उससे मेरी दोस्ती थी। उसकी ज़रा तबियत बिगड़ती तो पापा परेशान हो जाते,मम्मी बार-बार उसके बारे में पूछती। जब तक उसकी तबीयत नहीं सुधरती हमें भी कहां चैन आता। उसको हमेशा हंसते-मुस्कुराते और ठुमकते चलते देखते थे इसलिए जब तक वो ऐसा ना करती तो हम लोगों की पेशानी पर बल पड़े रहते।

फिर मैंने शहर बदला। मैं नौकरी करने दूसरे शहर में चला गया। वो घर पर पापा-मम्मी के साथ रही। हर हफ्ते जब भी घऱ लौटता तो उसका होना मुझे अच्छा लगता। आदत थी उसके होने की, हालांकि उसकी अहमियत अब कम हो चली थी। उससे कोई गिला नहीं था हमें और उसे भी कोई शिकवा नहीं था हमसे। फिर जब इस हफ्ते मैं लौटा तो देखा वो घर पर नहीं थी। यूं पिछले हफ्ते भी नहीं थी लेकिन मैंने जल्दबाज़ी में उसके बारे में कुछ पूछा नहीं। अब लेकिन पूछा तो मालूम चला कि वो हमेशा के लिए चली गई । 13-14 साल तक साथ रहने के बाद वो हमेशा के लिए हमसे बिछड़ गई..मैं तो उसे आखिरी बार देख भी नहीं सका। क्या कर सकता था..जो उसे घर लाए थे उन्होंने ही उसे घर से निकालने का फैसला कर लिया था..क्या कहता पापा को..अब ध्यान से सोचता हूं तो याद आता है कि उसकी तो कोई तस्वीर भी नहीं है हमारे पास.. वो हमारी प्यारी पुरानी मारुति वैन थी..


वो लाल इमारत..


आईआईएमसी...दिल्ली की वो लाल इमारत देखकर मेरे बदन में एक झुरझुरी-सी होती थी। उन दिनों मुझे वो इमारत पत्रकारिता के छात्रों की मक्का लगती थी। मैं उस संस्थान की प्रतिष्ठा से बेतरह प्रभावित था। वहां का छात्र होने का गौरव पाने को मैं लगभग पागल ही हो गया था। दिन-रात अखबार और पत्रिकाएं चाटा करता था। बात दो साल पहले की है जब मैंने आईआईएमसी में दो फॉर्म एक साथ भरे, ये सोचकर कि एक कोर्स में यदि एडमिशन ना भी हो सका तो दूसरे में शायद हो ही जाए। टीवी एंड रेडियो तथा हिंदी पत्रकारिता नाम के दोनों कोर्स की लिखित परीक्षा दे ड़ाली । मुझे सचमुच अंदाज़ा नहीं था कि दोनों ही लिखित परीक्षाओं में काफी अच्छे अंक मिलेंगे पर वो मिले । नतीज़तन मुझे एक नहीं बल्कि दोनों साक्षात्कार के लिए बुलाया गया। आत्मविश्वास से झूमता मैं आश्वस्त था कि अब किसी एक कोर्स में तो मेरा दाखिला तय है।
   खैर, मैं इंटरव्यू के लिए उस लाल इमारत में दाखिल हुआ। टीवी एंड रेडियो कोर्स के लिए मेरा साक्षात्कार जो तीन महानुभाव (एक महिला और दो पुरुष) उस दिन ले रहे थे उन्होंने मेरा अंग्रेजी में स्वागत किया मगर मेरा जवाब हिंदी में सुनने के बाद मुझे उनकी त्यौरियां कुछ चढती-सी लगीं। चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय से मैंने ग्रेजुएशन किया था। उन्होंने जब मेरे फॉर्म पर उस विश्वविद्यालय का नाम पढा तो जैसे वो मेरे दुश्मन ही बन बैठे। मैं फिर भी उनके सवालों का संतोषजनक जवाब देने की कोशिश करता रहा पर ना जाने क्यों उन मैडम जी ने तो जैसे मुझे चुप करा देने की कसम खा रखी थी। मेरे जवाब से पहले वो मुझसे अगला सवाल करती रहीं। मैं कमरे से बाहर आया तो मुझे नतीजे का अंदाज़ा खूब था। बहरहाल, दूसरे इंटरव्यू को लेकर मैं फिर भी आशावान बना रहा हालांकि पहले इंटरव्यू का अनुभव इतना खौफनाक था कि मेरे मन में एक डर भी बैठ गया था।
  नियत दिन मैं दूसरे इंटरव्यू के लिए अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा था और मेरे साथ एक लड़का और एक लड़की भी थे। उस लड़की का नाम मुझे आज भी उसकी एक बेवकूफी की वजह से याद है क्यों कि वो साक्षात्कार के दिन अपने डॉक्यूमेन्ट्स तक लाना भूल गई थी। खैर, वक्त रहते उसका ब्वॉयफ्रेंड उसके डॉक्यूमेंट्स ले आया था। वो लड़की मुझसे और हमारे साथ बैठे लड़के से बात कर रही थी तो साफ लग रहा था कि लिखने-पढने जैसी किसी बात से इसका कोई ताल्लुक नहीं है। मुझे हैरानी थी कि उसने लिखित परीक्षा किस तरह पास कर ली। हमारे साथ ही आईआईएमसी का एक कर्मचारी भी बैठा था जो हमें एक-एक करके इंटरव्यू रुम में भेज रहा था। वो सज्जन आदमी हमें थोड़ा नवर्स देखकर बातें करने लगा। उसने हमें नॉर्मल करने के लिए इधर-उधर की बातें करनी शुरु कीं मगर इसी बीच हमारे साथ बैठी लड़की को उसके बाहर खड़े ब्वॉयफ्रेंड ने अपने पास इशारे से बुलाया। कर्मचारी उस लड़के को देखकर चौंका और लड़की के बाहर जाते ही हमसे बोला कि ये लड़का यहीं पिछले बैच में था और मैं इसे जानता हूं। ये पक्का यहां पर इस लड़की की सिफारिश लेकर आया है,मगर इसकी सिफारिश नहीं चलेगी क्योंकि इंटरव्यू पैनल में बैठे साहब बड़े सख्त हैं। खैर..लड़की का इंटरव्यू हमसे पहले हुआ और वो बाहर आकर मुंह बनाते हुए यही बोली कि बस ठीक ही हुआ। हमारा डर दोगुना हो गया मगर करना तो था ही तो बाकी बचे हम दोनों ने इंटरव्यू पूरा कर ही लिया। हम दोनों ही इंटरव्यू से खुश थे क्योंकि मेरा अनुभव इस बार पिछले इंटरव्यू जैसा भयानक नहीं था। फिर एक दिन नतीजा आया नतीजा आया और मैंने देखा कि हम दोनों लड़कों का नाम लिस्ट में नहीं था पर उस लड़की का नाम ज़रुर था। मुझे समझ आ गया कि अंदर बैठे साहब की सख्ती उस दिन पिघघल गई थी और उन्होंने सिफारिश मान ली थी।
   उन्हीं दिनों मेरी दोस्ती इंटरनेट के माध्यम से  एक लड़के से हुई जो आईआईएमसी के उसी बैच का स्टूडेन्ट था जिसमें वो लड़की भी थी। कुछ दिनों बाद जब हमारी दोस्ती अच्छी हो गई तो मैंने एक दिन फोन पर उसी लड़की का ज़िक्र किया तो वो भी तपाक से बोला कि- अरे हां, वो लड़की तो बेवकूफ है क्योंकि एक दिन क्लास में पूछे जाने पर वो बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का नाम तक नहीं बता सकी थी। फिर मैंने उससे इंटरव्यू के दौरान घटी बातें बताईं। उसने कतई हैरानी नहीं जताई और बताया कि उस लड़की का वही ब्वॉयफ्रेंड अब भी वहां खूब आता-जाता है और ये इस तरह का पहला मामला नहीं है। आईआईएमसी की उसी क्लास में उस साल ऐसे और भी भावी पत्रकार एडमिशन पा चुके थे जिनके पास जुगाड़ नाम का सफल औज़ार था। बाद में ऐसे और भी अनेक वाकये हुए जिनसे मुझे आईआईएमसी में एडमिशन के लिए जुगाड़ की महिमा का ज्ञान हुआ। आज भी मेरी फाइलों के बीच पड़ा आईआईएमसी का इंटरव्यू लैटर मेरे बदन में वैसी ही झुरझुरी पैदा करता है जैसी कभी मुझे वो लाल इमारत देखकर होती थी,बस अब वजह कुछ और है...