सोमवार, 11 दिसंबर 2017

क्यूबा के आसमान पर चमकता सूरज

एक दौर में जो नायक होता है वही बदले दौर का खलयनाक होता है। भारत में इंदिरा हों या पाकिस्तान में ज़िया.. हर कोई लोकप्रियता के दौर के बाद एक वक्त के लिए नायक से खलनायक में तब्दील हुआ ही है। कुछ ऐसा ही भारत से 13 हज़ार किलोमीटर दूर बसे क्यूबा नाम के देश में हुआ। फुलगेन्शियो बतिस्ता नाम का नायक सालों के शासन के बाद बतौर खलनायक अपने देश से भाग निकला। भागने से पहले उसने जितनी हो सकता था उतनी दौलत अपने DC-4 विमान में भर ली। उसने डोमिनियन रिपब्लिक में जाकर शरण ली जहां उसका तानाशाह दोस्त सत्ता पर काबिज़ था। वो तारीख 1959 की 1 जनवरी थी। इसके बाद क्यूबा के आसमान पर जो सूरज चमका उसका नाम फिदेल कास्त्रो था। साल 2008 तक कास्त्रो ही क्यूबाई आसमान पर चमक बिखेरते रहे।
कास्त्रो ने क्यूबाई क्रांति की शुरूआत महज़ 82 साथियों के साथ की थी जिनमें सिर्फ 12 ही सरकारी गोलियों का शिकार होने से बच सके थे। इन 12 लोगों ने 25 महीनों के भीतर ही सारे क्यूबा को अपने उद्देश्य से सहमत करा लिया और 80 हज़ार की सेना के मालिक बतिस्ता को भागने पर मजबूर कर दिया। फिदेल कम्युनिस्ट कम थे, क्यूबाई राष्ट्रवादी ज़्यादा थे। ये अलग बात है कि उनकी अधिकतर नीतियां समाजवादी थीं और खुद भी एक वक्त के बाद वो कम्युनिस्ट हुए ।हां, उनका छोटा भाई राउल और मशहूर क्रांतिकारी साथी चे ग्वेरा ज़रूर शुरू से कट्टर कम्युनिस्ट थे। 
फिदेल कास्त्रो से अमेरिका की चिढ़ शीतयुद्ध के ज़माने से थी। क्यूबा का दावा है कि अमेरिका की सीआईए ने 600 से भी ज़्यादा बार उन्हें जान से मारने की कोशिश की। इन कोशिशों में उनके सिगार में ज़हर मिलाने से लेकर उनकी पूर्व प्रेमिका को ज़हरीला कैप्सूल लेकर उनके पास भेजना तक शामिल रहा। नौ अमेरिकी राष्ट्रपति आए और गए लेकिन कास्त्रो क्यूबा पर जमे रहे। एक बार अर्जेंटीना के मशहूर फुटबॉलर डिएगो माराडोना ने कास्त्रो की तारीफ कर दी। अमेरिका ने चिढ़ में उन्हें वीज़ा देने से मना कर दिया। बाद में उन्हें 8 दिन का वीज़ा दिया गया लेकिन उनके साथियों को दस साल का वीज़ा मिला था।
फिदेस कास्त्रो का भारत से हमेशा मीठा रिश्ता रहा। नेहरू के गुटरनिपेक्षता के सिद्धांत के वो कायल थे। इंदिरा के साथ भी उनकी मुलाकातें हमेशा गर्मजोशी से भरपूर रहीं। कास्त्रो के मंत्री के तौर पर चे ग्वेरा भी क्रांति के कुछ ही महीने बाद भारत के दौरे पर आए थे। मैंने कहीं कम्युनिस्ट नेता सीताराम येचुरी का कास्त्रो संग मुलाकात का एक किस्सा पढ़ा था। यहां साझा करता हूं। येचुरी ने ज्योति बसु के साथ 1993 में क्यूबा का दौरा किया था। डिनर करने के बाद दोनों सोने जा रहे थे कि फिदेल कास्त्रो ने उन्हें मुलाकात का बुलावा भेजा। आधी रात को बैठ कर कास्त्रो ने दोनों नेताओं से डेढ़ घंटे की मुलाकात की। इस बातचीत में कास्त्रो ने उनसे भारत में पैदा होने वाले कोयले और लोहे को लेकर इतने सवाल किए कि ज्योति बसु ने बगल में बैठे येचुरी से बंगाली में बेचारगी से पूछा- क्या ये हमारा इंटरव्यू ले रहे हैं...
बसु को आंकड़े याद नहीं थे और कास्त्रो इस बात को समझ रहे थे। उन्होंने येचुरी से कहा कि ज्योति बसु बूढ़े हो चुके हैं लेकिन आपको तो आंकड़े याद होने ही चाहिए। इसके बाद येचुरी जब भी क्यूबा गए अपने साथ भारत से जुड़े तमाम आर्थिक आंकड़ों का हिसाब किताब लेकर ही गए।
इसी तरह जब बसु और येचुरी भारत लौटने के लिए हवाना के हवाई अड्डे पर बैठे थे तो अचानक कास्त्रो उन्हें विदाई देने के लिए आ गए। कास्त्रो ने कंधे पर बैग लटकाए येचुरी से पूछा कि इसमें क्या है। येचुरी ने उन्हें बताया कि बैग में कुछ किताबें हैं। कास्त्रो ने इसके बाद येचुरी को कहा कि उनके सामने कभी कोई बैग लेकर नहीं आता क्योंकि उसमें कुछ भी हो सकता है और सीआईए उन्हें मारने की कोशिश करती रहती है। येचुरी ने भी कास्त्रो का ध्यान उनकी पिस्तौल की तरफ दिलाते हुए कहा कि आपके पास पिस्तौल है। अगर कोई आप पर हमला करे तो आप इसका इस्तेमाल कर सकते हैं। बदले में कास्त्रो मुस्कुराए और बोले- आज तुम्हें राज़ की बात बताता हूं। ये पिस्तौल मैं अपने दुश्मनों को डराने के लिए पास रखता तो हूं मगर इसमें कभी गोली नहीं रखी।
नोबेल पुरस्कार विजेता पाब्लो नेरूदा ने फिदेल के लिए जो कुछ लिखा है उसकी चार पंक्तियां लिखकर बात खत्म कर रहा हूं।
हम तुम्हारे साथ हैं: क्योंकि तुम प्रतीक हो
हमारे दुर्धर्ष संघर्षों के, सामूहिक शौर्य के
अगर क्यूबा लड़खड़ाएगा, हम सब गिरेंगे
हम उसे संभालने को आगे बढ़ेंगे।
(इति इतिहास श्रृंखला)









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