तो मैं बता रहा था कि कैसे डॉ भीमराव अंबेडकर से मेरा पहला परिचय हुआ। उनकी हाथ-टूटी मूर्तियों ने मेरे मन में उनके प्रति आकर्षण जगाया था। गोल-मटोल, कोट-पैंट पहने और हाथ में किताब लिए खड़े अंबेडकर की मूर्तियां हर गांव में थीं तो सही मगर सभी खंडित। एकाध कोई होगी जो साबुत थी। मैंने अपने आसपास के लोगों से जब भी सवाल किए तो मुझे अंबेडकर और दलितों को लेकर एक नफरत का सा भाव महसूस हुआ। दलितों से तो नफरत फिर भी समझ आती थी (जितनी एक बच्चे को आ सकती थी)। वो गंदे-संदे रहते हैं लेकिन देखने में ही साफ-सुथरे अंबेडकर से दिक्कत कैसी? मुझे याद है कि मैं दसवीं में था और अपने गांव के स्कूल में पढ़ रहा था।गरमी की एक दोपहर मैं बरामदे में खेल रहा था। एक औरत मेरी बुआ के साथ कुरसी पर बैठी बातें कर रही थी। जैसे ही वो गई, मेरी बुआ ने प्लास्टिक की उस कुरसी पर एक बालटी पानी फेंक दिया। पानी की तेज़ आवाज़ सुनकर मैं चौंक गया। कुरसी पर पानी फेंकने की हरकत को देख तो और हैरान था। मैंने वजह पूछी तो उन्होंने बताया कि वो @#$ थी। मेरा दिमाग भन्ना गया। बहसबाज़ पूरा था और डरना तो बहुत पहले छोड़ चुका था, पलट कर पूछा- वो चाहे जो थी, उसके कपड़ों में गोबर लगा था क्या ???? क्यों फेंका पानी कुरसी पर?
बेचारी मेरी बुआ तर्क-फर्क से दूर थी। उन्होंने जो सीखा था वही किया। सोलह साल के भतीजे से ऐसा सवाल सुना तो क्या जवाब देती। वो चली गईं लेकिन मैं बहुत देर तक बरामदे में घूम घूम कर बोलता रहा। उस उम्र तक मैं जाति का जन्मना गौरव खोने लगा था। हां, मुखर भले नहीं था और अपने नाम के आगे और पीछे जातिगत उपनाम भी लगाता था लेकिन दलितों से मेरी कोई चिढ़ नहीं थी। क्रिकेट टीम चुनने के वक्त मेरी पहली पसंद हरिजन लड़के रहते थे। कमाल का खेलते थे। फील्डिंग के दौरान उन्हें गिरकर बॉल रोकने में समस्या नहीं होती थी। सोफिस्टिकेटेड सवर्ण भाई जेब में हाथ डाल बॉल को जाते देखते रहते थे, क्योंकि वो कपड़े गंदे नहीं करना चाहते थे। उस दौरान गांव के अकेले मुस्लिम परिवार का लड़का मेरा सबसे अच्छा दोस्त था। मैं घर पर नहीं था और ईद पर वो मेरे लिए मिठाई देकर गया था। घर लौटने पर मुझे मिठाई नहीं मिली क्योंकि एक मुसलमान के घर से मिठाई आने पर पहले ही इधर-उधर ठिकाने लगा दी गई थी। मैं घर भर में जमकर बरसा था। वो फिर अलग ही किस्सा है कि उस मिठाई की कमी मैंने उसके घर पर खा-पीकर पूरी की थी। उस वक्त मैं नहीं जानता था कि अपनी 'महानता' (जैसा कुछ लोग अब तक समझने लगे होंगे कि मैं अपनी महानता का गौरवगान कर रहा हूं) के किस्से सुनाने का कभी मौका मिलेगा। खैर, अभी भी मैं अंबेडकर को ठीक से एक्स्प्लोर नहीं कर पा रहा था।
आगे मुझे ये भी बताया गया कि अंबेडकर ने तो संविधान लिखा ही नहीं, वो तो इधर-उधर से दूसरों का माल इकट्ठा करके एक किताब में डाल भर दिया। भला ऐसा कोई संविधान होता है! अब जवाब तो मुझे नहीं मालूम था कि संविधान कैसा होता है मगर मेरे आसपास सब यही कहे जा रहे थे कि भला ऐसा कोई संविधान होता है! कई सालों तक मैं भी बिना दिमाग लगाए अंतर्मन में यही दोहराता रहा और आगे जाकर अपने से छोटों को भी बाकायदा तर्क देकर समझाने लगा कि संविधान तो उधार का पोटला है। ये बात ज़ाहिर है कि मैंने तब तक संविधान पढ़ा नहीं था, पढ़ लेता तो भी समझना मुश्किल था। ये समझना तो और भी मुश्किल था कि इसकी गहराई क्या है और ये कैसे हालात में किनके हितों की रक्षा के लिए लिखा गया था। बहरहाल, मैं छोटा था। औकात भर का सोच रहा था। आगे चलकर आरएसएस के आनुषांगिक संगठनों से संपर्क हुआ। वहां अंबेडकर की फोटो तो थी, लेकिन संविधान को लेकर ऐसा कोई खास सम्मान नहीं था। कभी-कभी तो सुनता भी था कि संविधान में हिंदुओं के लिए कुछ नहीं है। (जब पढ़ा तो पाया कि बात सही थी, सब भारत के नागरिकों के लिए था)। अभी तक भी मेरी समझ यही थी कि गांधी ने दलितों को खुश रखने के लिए अंबेडकर का प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल किया था। सबको साथ रखने का ये गांधियन तरीका था जो बाद में राजनैतिक दलों ने पूरी चालाकी से इस्तेमाल किया। अंबेडकर सिर्फ रबर स्टांप थे। खैर, संविधान सभा की बहस को टुकड़ों में पढ़कर या संविधान पर बनी डॉक्यूमेंट्री और किताबें देखकर पता चलता है कि अंबेडकर को रबर स्टांप बनाकर इस्तेमाल कर पाना किसी के लिए भी बूते से बाहर था। सही मायनों में अंबेडकर के लिए दलित प्रश्न से बड़ा ना कोई पद था और ना देश की आज़ादी ही थी। उनके सामने साफ था कि देश आज़ाद भी हो जाए तो भी दलितों के हालात बदलने मुश्किल हैं। महिला अधिकारों को लेकर उनकी ज़िद संविधान में साफ परिलक्षित होती है। तो मैं बता रहा था कि हिंदू संगठनों में भी अंबेडकर की फोटो के लिए जगह तो थी मगर दलितों के लिए नहीं। संविधान को लेकर भी सम्मान जैसी बात नहीं थी। दलित आबादी को साथ रखने के लिए अंबेडकर जयंती या वाल्मीकि जयंती मनाना पिछले दशक भर के चोचले हैं। वहां तिरंगे तक पर बहस होती है। बहस भले ही चिंतनशील समाज का लक्षण है लेकिन यहां उनके तब दिए जानेवाले तर्क लिख दूं तो बेवजह शर्मसार होंगे। फिर मैंने अंबेडकर की जीवनी पढ़ी। सोचा कि देख तो लूं आदमी भगवान कैसे बनता है। पढ़ा तो बहुत कुछ पाया। उनका संघर्ष तो जाना ही लेकिन उनके शिक्षक, महाराजा गायकवाड़ और गांधी जैसे सवर्णों को भी उस संघर्ष में योगदान देते पाया। (आज के अंबेडकराइट्स को इस लाइन से दर्द होगा, लेकिन मैं किसी की परवाह नहीं कर रहा तो उनकी भी क्यों हो)। किताबें पढ़कर मुझे हौसला मिला कि मैं अब जो अंबेडकर के बारे में जानता हूं तो गलत नहीं जानता हूं। एक बात जो मेरे मन में बहुत ज़्यादा घर कर गई थी वो ये कि विदेश से डिग्री लेकर लौटे अंबेडकर जब महाराजा गायकवाड के यहां नौकरी पर लगे तो उन्हें चपरासी तक फाइल दूर से फेंककर देता था। इतना ज़्यादा अपमान !! ऐसा और भी जाने क्या क्या सहने के बावजूद अंबेडकर ने बंदूक नहीं उठाई, कलम उठाई। बंदूक उठा लेते तो शायद कुछ साल बाद मारे जाते लेकिन कलम उठाने का विज़न ऐसा था कि उनको मारने की साज़िशें मर गईं.. और आज इतने सालों बाद उनके दुश्मन भी उन्हें मंजूर करने को मजबूर हैं.. वजह चाहे जो हों। मैं हर बात में अंबेडकर से सहमत नहीं हूं, उनसे क्या किसी से भी नहीं हूं लेकिन उनके बारे में काफी कुछ पढ़ने के बाद उन्हें भगवान नहीं मानता। भगवान नहीं मानता इसलिए असहमत होकर भी सम्मान में झुका हूं। उनका संघर्ष उनसे भी बड़ा है।
बेचारी मेरी बुआ तर्क-फर्क से दूर थी। उन्होंने जो सीखा था वही किया। सोलह साल के भतीजे से ऐसा सवाल सुना तो क्या जवाब देती। वो चली गईं लेकिन मैं बहुत देर तक बरामदे में घूम घूम कर बोलता रहा। उस उम्र तक मैं जाति का जन्मना गौरव खोने लगा था। हां, मुखर भले नहीं था और अपने नाम के आगे और पीछे जातिगत उपनाम भी लगाता था लेकिन दलितों से मेरी कोई चिढ़ नहीं थी। क्रिकेट टीम चुनने के वक्त मेरी पहली पसंद हरिजन लड़के रहते थे। कमाल का खेलते थे। फील्डिंग के दौरान उन्हें गिरकर बॉल रोकने में समस्या नहीं होती थी। सोफिस्टिकेटेड सवर्ण भाई जेब में हाथ डाल बॉल को जाते देखते रहते थे, क्योंकि वो कपड़े गंदे नहीं करना चाहते थे। उस दौरान गांव के अकेले मुस्लिम परिवार का लड़का मेरा सबसे अच्छा दोस्त था। मैं घर पर नहीं था और ईद पर वो मेरे लिए मिठाई देकर गया था। घर लौटने पर मुझे मिठाई नहीं मिली क्योंकि एक मुसलमान के घर से मिठाई आने पर पहले ही इधर-उधर ठिकाने लगा दी गई थी। मैं घर भर में जमकर बरसा था। वो फिर अलग ही किस्सा है कि उस मिठाई की कमी मैंने उसके घर पर खा-पीकर पूरी की थी। उस वक्त मैं नहीं जानता था कि अपनी 'महानता' (जैसा कुछ लोग अब तक समझने लगे होंगे कि मैं अपनी महानता का गौरवगान कर रहा हूं) के किस्से सुनाने का कभी मौका मिलेगा। खैर, अभी भी मैं अंबेडकर को ठीक से एक्स्प्लोर नहीं कर पा रहा था।
आगे मुझे ये भी बताया गया कि अंबेडकर ने तो संविधान लिखा ही नहीं, वो तो इधर-उधर से दूसरों का माल इकट्ठा करके एक किताब में डाल भर दिया। भला ऐसा कोई संविधान होता है! अब जवाब तो मुझे नहीं मालूम था कि संविधान कैसा होता है मगर मेरे आसपास सब यही कहे जा रहे थे कि भला ऐसा कोई संविधान होता है! कई सालों तक मैं भी बिना दिमाग लगाए अंतर्मन में यही दोहराता रहा और आगे जाकर अपने से छोटों को भी बाकायदा तर्क देकर समझाने लगा कि संविधान तो उधार का पोटला है। ये बात ज़ाहिर है कि मैंने तब तक संविधान पढ़ा नहीं था, पढ़ लेता तो भी समझना मुश्किल था। ये समझना तो और भी मुश्किल था कि इसकी गहराई क्या है और ये कैसे हालात में किनके हितों की रक्षा के लिए लिखा गया था। बहरहाल, मैं छोटा था। औकात भर का सोच रहा था। आगे चलकर आरएसएस के आनुषांगिक संगठनों से संपर्क हुआ। वहां अंबेडकर की फोटो तो थी, लेकिन संविधान को लेकर ऐसा कोई खास सम्मान नहीं था। कभी-कभी तो सुनता भी था कि संविधान में हिंदुओं के लिए कुछ नहीं है। (जब पढ़ा तो पाया कि बात सही थी, सब भारत के नागरिकों के लिए था)। अभी तक भी मेरी समझ यही थी कि गांधी ने दलितों को खुश रखने के लिए अंबेडकर का प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल किया था। सबको साथ रखने का ये गांधियन तरीका था जो बाद में राजनैतिक दलों ने पूरी चालाकी से इस्तेमाल किया। अंबेडकर सिर्फ रबर स्टांप थे। खैर, संविधान सभा की बहस को टुकड़ों में पढ़कर या संविधान पर बनी डॉक्यूमेंट्री और किताबें देखकर पता चलता है कि अंबेडकर को रबर स्टांप बनाकर इस्तेमाल कर पाना किसी के लिए भी बूते से बाहर था। सही मायनों में अंबेडकर के लिए दलित प्रश्न से बड़ा ना कोई पद था और ना देश की आज़ादी ही थी। उनके सामने साफ था कि देश आज़ाद भी हो जाए तो भी दलितों के हालात बदलने मुश्किल हैं। महिला अधिकारों को लेकर उनकी ज़िद संविधान में साफ परिलक्षित होती है। तो मैं बता रहा था कि हिंदू संगठनों में भी अंबेडकर की फोटो के लिए जगह तो थी मगर दलितों के लिए नहीं। संविधान को लेकर भी सम्मान जैसी बात नहीं थी। दलित आबादी को साथ रखने के लिए अंबेडकर जयंती या वाल्मीकि जयंती मनाना पिछले दशक भर के चोचले हैं। वहां तिरंगे तक पर बहस होती है। बहस भले ही चिंतनशील समाज का लक्षण है लेकिन यहां उनके तब दिए जानेवाले तर्क लिख दूं तो बेवजह शर्मसार होंगे। फिर मैंने अंबेडकर की जीवनी पढ़ी। सोचा कि देख तो लूं आदमी भगवान कैसे बनता है। पढ़ा तो बहुत कुछ पाया। उनका संघर्ष तो जाना ही लेकिन उनके शिक्षक, महाराजा गायकवाड़ और गांधी जैसे सवर्णों को भी उस संघर्ष में योगदान देते पाया। (आज के अंबेडकराइट्स को इस लाइन से दर्द होगा, लेकिन मैं किसी की परवाह नहीं कर रहा तो उनकी भी क्यों हो)। किताबें पढ़कर मुझे हौसला मिला कि मैं अब जो अंबेडकर के बारे में जानता हूं तो गलत नहीं जानता हूं। एक बात जो मेरे मन में बहुत ज़्यादा घर कर गई थी वो ये कि विदेश से डिग्री लेकर लौटे अंबेडकर जब महाराजा गायकवाड के यहां नौकरी पर लगे तो उन्हें चपरासी तक फाइल दूर से फेंककर देता था। इतना ज़्यादा अपमान !! ऐसा और भी जाने क्या क्या सहने के बावजूद अंबेडकर ने बंदूक नहीं उठाई, कलम उठाई। बंदूक उठा लेते तो शायद कुछ साल बाद मारे जाते लेकिन कलम उठाने का विज़न ऐसा था कि उनको मारने की साज़िशें मर गईं.. और आज इतने सालों बाद उनके दुश्मन भी उन्हें मंजूर करने को मजबूर हैं.. वजह चाहे जो हों। मैं हर बात में अंबेडकर से सहमत नहीं हूं, उनसे क्या किसी से भी नहीं हूं लेकिन उनके बारे में काफी कुछ पढ़ने के बाद उन्हें भगवान नहीं मानता। भगवान नहीं मानता इसलिए असहमत होकर भी सम्मान में झुका हूं। उनका संघर्ष उनसे भी बड़ा है।
गाँधी,नेहरू,बाॅस के बाद अब अम्बेडकर के बारे में एक अलग नजरिया देने के लिए शुक्रिया..
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