झूठ नहीं लिखूंगा.. भले ही सच लिखने में रिस्क हो। कभी कहीं पढ़ा था कि सच लिखने की सबसे अच्छी बात यही है कि उसे याद नहीं रखना पड़ता और याद्दाश्त मेरी बहुत कमज़ोर है। एक दौर ऐसा भी था कि मैं शरीर और दिमाग दोनों से ही बच्चा था (दिमाग से तो आज भी हूं)। खैर, उन दिनों गरमी की छुट्टियों में ननिहाल जाता था। वहां आम, क्रिकेट और ट्यूबवैल में नहाना मेरे लिए परम आकर्षण थे। हमारी अपनी ट्यूबवैल में नहाने के लिए गांव से बाहर निकलना पड़ता था। वहीं रास्ते में सड़क किनारे एकदम ही सुनसान में एक आदमी की छोटी सी खंडित मूर्ति खड़ी देखी थी। पहले पहल तो नहाने के उत्साह में उसे लेकर कोई फिक्र नहीं हुई मगर बालमन कब तक ना पूछता। आखिर एक दिन विचार आया कि रात को जब अंधेरा होता होगा तो इस मूर्ति को यहां अकेले में डर नहीं लगता होगा (हंसिए मत, बचपन में मैं मान कर चलता था कि हर चीज़ जो दिख रही है सबमें जान है.. वक्त के साथ ये भरोसा मज़बूत ही हो रहा है)!!! फिर एक दिन अपने ममेरे भाई से पूछा कि ये किसकी मूर्ति है और इसके टूटे हाथ को जुड़वाते क्यों नहीं हो? वो हंसने लगा। बोला- हरिजनों का भगवान है।
शब्द अब ठीक से याद नहीं लेकिन यही कहा होगा। मैं चौंका हूंगा और खुद से ही बोला भी होगा- गज़ब.......... कोट-पैंट वाला भगवान!!
फिर उसने ही धीमे से कहा- इसका हाथ तो पिताजी ने ही तोड़ा था। (हम नाना जी को पिता जी कहते थे)
मैंने ज़्यादा कुछ नहीं पूछा लेकिन खुद ही मान लिया कि चूंकि हमारे घर और हरिजनों की बस्ती दूर है, और क्योंकि हम लोगों का आपस में लेनादेना सिर्फ इतना है कि वो हमारे गाय-भैंसों का गोबर उठाकर ले जाते हैं तो ज़रूर अपने बीच कोई कंपटीशन टाइप है। बताने की ज़रूरत नहीं कि वो मूर्ति अंबेडकर की थी और मेरा ममेरा भाई डींग हांक कर जताना चाह रहा था कि दलित बहुल गांव में भी दलितों का भगवान हमारे मरज़ी के बिना साबुत नहीं खड़ा हो सकता। इसके बाद मैंने कई और गांव में हाथ टूटे हुए अंबेडकर देखे। धीरे-धीरे मेरे लिए नज़रअंदाज़ करना ज़रा मुश्किल होने लगा । एक सूटेड बूटेड आदमी हाथ में किताब लिए खड़ा है और लगभग हर गांव में उसका हाथ टूटा हुआ है.. आखिर माज़रा क्या है ? जिनका भगवान है वो हाथ क्यों नहीं जुड़वा रहे.... जब किसी से पूछा तो उसने कहा कि दिन में हाथ जुड़ता है तो अगली सुबह टूटा ही मिलता है.. कब तक जुड़वाएंगे...
समस्या वाकई गंभीर थी.. एक बच्चे के लिए तो और भी गंभीर। आखिर इस भगवान के हाथ में तो हथियार भी नहीं। गोल मटोल प्यारा सा दिखता है। कोट-पैंट-टाई के साथ किताब हाथ में लिए खड़ा है। खतरा जैसा तो कुछ महसूस होता नहीं फिर वो लोग जिनके घरों में सबसे ज़्यादा हथियार हैं इससे डरे हुए क्यों हैं। अब ठीक से याद नहीं लेकिन पापा से या किसी बड़े से पूछा था- ये किताब क्या है जो हाथ में लिए खड़े हैं ?
जवाब मिला- संविधान।
मैंने पूछा- वो क्या है ?
बोले- देश उससे ही चल रहा है।। नियम हैं।
मैंने फिर पूछा- हां तो ये क्यों लिए खड़े हैं।
उन्होंने कहा- इन्होंने बनाया था।
मैं रुका नहीं- इन्होंने ही सारे नियम बनाए हैं ?
उन्होंने सोचा, गलती हो गई, बोले- हां, बहुत सारे लोग थे लेकिन लास्ट में इन्होंने ही लिखा था। बहुत पढ़े-लिखे थे ना।
अब तो समस्या और गंभीर हो चली थी। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि जो इन्हें अपना भगवान मानते हैं ना तो उनके पास इन जैसे कपड़े हैं और ना ही पढ़े-लिखे दिखते हैं। दूसरी तरफ ये हमारे भगवान नहीं लेकिन कोट-पैंट और किताब तो हमारे ही हिस्से में हैं.. आखिर ये पहेली क्या है ? भक्त भगवान जैसा नहीं.. और दुश्मन भगवान जैसे ही हैं!!
- किस्सा
जारी है...
शब्द अब ठीक से याद नहीं लेकिन यही कहा होगा। मैं चौंका हूंगा और खुद से ही बोला भी होगा- गज़ब.......... कोट-पैंट वाला भगवान!!
फिर उसने ही धीमे से कहा- इसका हाथ तो पिताजी ने ही तोड़ा था। (हम नाना जी को पिता जी कहते थे)
मैंने ज़्यादा कुछ नहीं पूछा लेकिन खुद ही मान लिया कि चूंकि हमारे घर और हरिजनों की बस्ती दूर है, और क्योंकि हम लोगों का आपस में लेनादेना सिर्फ इतना है कि वो हमारे गाय-भैंसों का गोबर उठाकर ले जाते हैं तो ज़रूर अपने बीच कोई कंपटीशन टाइप है। बताने की ज़रूरत नहीं कि वो मूर्ति अंबेडकर की थी और मेरा ममेरा भाई डींग हांक कर जताना चाह रहा था कि दलित बहुल गांव में भी दलितों का भगवान हमारे मरज़ी के बिना साबुत नहीं खड़ा हो सकता। इसके बाद मैंने कई और गांव में हाथ टूटे हुए अंबेडकर देखे। धीरे-धीरे मेरे लिए नज़रअंदाज़ करना ज़रा मुश्किल होने लगा । एक सूटेड बूटेड आदमी हाथ में किताब लिए खड़ा है और लगभग हर गांव में उसका हाथ टूटा हुआ है.. आखिर माज़रा क्या है ? जिनका भगवान है वो हाथ क्यों नहीं जुड़वा रहे.... जब किसी से पूछा तो उसने कहा कि दिन में हाथ जुड़ता है तो अगली सुबह टूटा ही मिलता है.. कब तक जुड़वाएंगे...
समस्या वाकई गंभीर थी.. एक बच्चे के लिए तो और भी गंभीर। आखिर इस भगवान के हाथ में तो हथियार भी नहीं। गोल मटोल प्यारा सा दिखता है। कोट-पैंट-टाई के साथ किताब हाथ में लिए खड़ा है। खतरा जैसा तो कुछ महसूस होता नहीं फिर वो लोग जिनके घरों में सबसे ज़्यादा हथियार हैं इससे डरे हुए क्यों हैं। अब ठीक से याद नहीं लेकिन पापा से या किसी बड़े से पूछा था- ये किताब क्या है जो हाथ में लिए खड़े हैं ?
जवाब मिला- संविधान।
मैंने पूछा- वो क्या है ?
बोले- देश उससे ही चल रहा है।। नियम हैं।
मैंने फिर पूछा- हां तो ये क्यों लिए खड़े हैं।
उन्होंने कहा- इन्होंने बनाया था।
मैं रुका नहीं- इन्होंने ही सारे नियम बनाए हैं ?
उन्होंने सोचा, गलती हो गई, बोले- हां, बहुत सारे लोग थे लेकिन लास्ट में इन्होंने ही लिखा था। बहुत पढ़े-लिखे थे ना।
अब तो समस्या और गंभीर हो चली थी। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि जो इन्हें अपना भगवान मानते हैं ना तो उनके पास इन जैसे कपड़े हैं और ना ही पढ़े-लिखे दिखते हैं। दूसरी तरफ ये हमारे भगवान नहीं लेकिन कोट-पैंट और किताब तो हमारे ही हिस्से में हैं.. आखिर ये पहेली क्या है ? भक्त भगवान जैसा नहीं.. और दुश्मन भगवान जैसे ही हैं!!
- किस्सा
जारी है...
सारगर्भित लेखन ...🤔
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