AUGUST VAILLANT फ्रांस के अराजकतावादी क्रांतिकारी थे। 9 दिसंबर 1893 को उन्होंने चेंबर ऑफ डेप्युटीज़ में धमाके किए और बाद में उन्हें 3 फरवरी 1894 को मौत की सजा दे दी गई। हिंदुस्तान में भगत सिंह ने बहरी अंग्रेज़ी सरकार को अपनी आवाज सुनाने के लिए भी यही रास्ता चुना। आज की संसद और तब की सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली में उन्होंने बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर 8 अप्रैल 1929 को यही किया। खाली बेंचों पर बम धमाके किए, परचे फेंके और जमकर नारे लगाए। ऐसा करते वक्त उन्हें अपनी सजा का अंदाजा अच्छी तरह था। बम फेंकते वक्त भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने खाकी हाफ पैंट, कमीज़ और हल्के नीले रंग के कोट पहने हुए थे। उस वक्त चारों तरफ अफरा तफरी का माहौल था।
हिंदुस्तानी नेता मोतीलाल नेहरू, मदनमोहन मालवीय, मोहम्मद अली जिन्ना, एम आर जयकर और रफी अहमद किदवई उस वक्त चुपचाप खड़े रहे और बाद में बचाव पक्ष की तरफ से गवाही भी दी। हालांकि बाद में सदन ने जब बमकांड की निंदा का प्रस्ताव पारित किया तो भले ही कई राष्ट्रवादी नेता उसमें शामिल थे लेकिन मालवीय जी ने खुद को इससे अलग कर लिया। मरहूम खुशवंत सिंह के पिता सर शोभा सिंह ने इन क्रांतिकारियों की भरी अदालत में पहचान की थी। इस मामले में भगत सिंह और सुखदेव को 12 जून 1929 को आजीवन कालापानी की सजा सुनाई गई थी। उन्हें दिल्ली जेल से पंजाब के मियांवाली जेल भेज दिया गया। वहां भगत और उनके साथियों पर लाहौर षड्यंत्र कांड (जिसके तहत सांडर्स की हत्या हुई थी) का मुकदमा चलाया जाना था। भगत सिंह ने मियांवाली जेल और सुखदेव ने लाहौर जेल से अल्पतम सुविधाएं मुहैया कराए
जाने के जो खत लिखे वो मदनमोहन मालवीय जी ने सेंट्रल एसेंबली में सुनाए। दोनों दिल्ली जेल जैसी सुविधाएं चाह रहे थे, उससे ज़्यादा कुछ नहीं। मांगें नहीं मानी गईं तो केस के सभी आरोपी अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठ गए। कुछ कांग्रेसी नेताओं ने देश भर में इन कैदियों के समर्थन में प्रचार शुरू कर दिया जिनमें सैफुद्दीन किचलू, मोहम्मद आलम और गोपीचंद भार्गव शामिल थे। पहले से ही क्रांतिकारियों का दीवाना देश और भी आवेश में आ गया। 30 जून 1929 को देश में भगत सिंह दिवस मनाया गया। ये उस नौजवान क्रांतिकारी के लिए लोकप्रियता का चरम था। ब्रिटिश इंटेलिजेंस ब्यूरो के निदेशक रहे सर होरेस विलियम्सन ने अपनी किताब ‘हिंदुस्तान और साम्यवाद’ में लिखा भी है कि- ‘भगत सिंह ने कुछ भी गलत नहीं किया था। कैदियों के कटघरे उस समय राजनीतिक मंच बन गए थे। पूरा देश उनकी वीरोचित ओजस्विता से गूंजने लगा था। उनकी तस्वीरें हर शहर और कस्बे में बिकने लगी थीं। कुछ समय के लिए लोकप्रियता में वह गांधीजी की बराबरी करने लगे थे।’
जब मामले की सुनवाई के लिए भगत सिंह को लाहौर जेल लाया गया तो अनशन ने उनकी हालत खराब करके रख दी थी। कई आरोपियों का बैठना या खड़ा हो पाना मुमकिन ही नहीं था। भगत और कई साथियों ने तो अपना वकील लेने से भी इनकार कर दिया। अदालती कार्रवाई इसके बिना पूरी होने का सवाल ही नहीं था। कानून के तहत मुकदमा चलाए जाने के लिए अभियुक्त और वकील दोनों को ही अदालत में मौजूद रहना था। लेखक वीरेंद्र कुमार बरनवाल ‘जिन्ना- एक पुनर्दृष्टि’ में लिखते हैं कि गांधी के मार्ग से असहमत इन तरुण क्रांतिकारियों ने गांधी के ही अस्त्र से अंग्रेज़ों की न्याय व्यवस्था को खोखला और अपर्याप्त सिद्ध कर दिया था।
मगर अंग्रेज़ बौखला रहे थे। सांडर्स की हत्या ने ब्रिटेन तक में भारत सरकार की किरकिरी करवा दी थी। ऊपर से भगत सिंह और उनके साथी जिस तेज़ी से लोकप्रिय हो रहे थे वो उन्हें गांधी की तरह ही एक और बड़ी चुनौती बनाते जा रहे थे। अंग्रेज़ भगत सिंह को फांसी देने के लिए कितने बेताब थे इसे समझना ज़रूरी है। इसे समझे बिना हम भगत को बचाने में गांधी जी की अक्षमता या विवशता किसी को ठीक से समझ नहीं पाएंगे। अंग्रेज़ों के सामने अब कानूनन दो अड़चनें थीं जिन पर ध्यान दीजिएगा। पहली तो ये कि इंडियन क्रिमिनल प्रोसीजर कोड में एक नई धारा जोड़ने की जरूरत थी जो अभियुक्त या उसके वकील की गैर हाज़िरी में भी मुकदमा चलाने का हक दे दे और दूसरी ये कि मजिस्ट्रेट के सामने मुकदमे के बाद केस सेशन जज के पास जाता था। अगर जज फांसी की सजा देता तो उसकी पुष्टि उच्च न्यायालय से होना ज़रूरी था। इस पूरी प्रक्रिया में काफी समय लगना था। दुनिया में इंसाफ पसंद नस्ल माने जाने को बेताब अंग्रेज़ों ने उस साल बेशर्मी के कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए। उन्होंने दोनों समस्याओँ का तोड़ निकाल लिया। पहला काम तो ये किया गया कि कानून में नई धारा जोड़ी गई। इसके अनुसार यदि कोई अभियुक्त खुद को जानबूझकर ऐसी हालत में डाल लेता है कि वो अदालत में पेश ना हो सके तो चाहे उसने वकील किया हो या ना किया हो उस पर मुकदमा चलाया जा सकता है। दूसरा ये किया गया कि मुकदमे की सुनवाई के लिए सीधे उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को बैठाकर एक विशेष ट्रिब्यूनल का गठन किया गया ताकि मुकदमा जल्दी चले, सज़ा जल्दी हो और फिर उस पर अमल भी तुरंत ही हो सके। उस वक्त गवर्नर जनरल लॉर्ड इरविन थे। उन्हें भगत सिंह की फांसी से डिगाना मुश्किल था। वो मामले में ज़्यादा रुचि ले रहे थे। उन्होंने ट्रिब्यूनल का गठन तो किया ही, साथ में उसे अधिकार दिया कि चाहे निर्णय जो हो उसकी अपील कहीं और नहीं हो सकती।
जिन्ना ने तो सरकार पर कटाक्ष भी किया कि इस मामले में आप 600 गवाह पेश करेंगे, अगर किसी मामले को साबित करने के लिए 600 गवाह लाने पड़ें तो ऐसा केस खराब और बहुत कमज़ोर माना जाता है।
कुल मिलाकर हर किसी का ज़ोर इस बात पर था कि लाहौर षडयंत्र के आरोपियों को राजनैतिक बंदी का दर्जा दे दिया जाए। आगे मैं आपको बताऊंगा कि अगर भगत और उनके साथी राजनीतिक बंदी माने जाते तो उनकी मुक्ति के आसार बढ़ जाते। गांधी ने कैसे भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी को टालने की लगातार कोशिशें कीं और क्यों क्रांतिकारियों का राजनीतिक बंदी घोषित ना हो पाना ही अंत में गांधी जी को बातचीत की मेज पर कमज़ोर कर गया।
इति इतिहास श्रृंखला की कड़ी
AUGUST VAILLANT की तस्वीर, एसोसिएटिड प्रेस के हवाले से अखबार में छपी बम धमाके की खबर |
हिंदुस्तानी नेता मोतीलाल नेहरू, मदनमोहन मालवीय, मोहम्मद अली जिन्ना, एम आर जयकर और रफी अहमद किदवई उस वक्त चुपचाप खड़े रहे और बाद में बचाव पक्ष की तरफ से गवाही भी दी। हालांकि बाद में सदन ने जब बमकांड की निंदा का प्रस्ताव पारित किया तो भले ही कई राष्ट्रवादी नेता उसमें शामिल थे लेकिन मालवीय जी ने खुद को इससे अलग कर लिया। मरहूम खुशवंत सिंह के पिता सर शोभा सिंह ने इन क्रांतिकारियों की भरी अदालत में पहचान की थी। इस मामले में भगत सिंह और सुखदेव को 12 जून 1929 को आजीवन कालापानी की सजा सुनाई गई थी। उन्हें दिल्ली जेल से पंजाब के मियांवाली जेल भेज दिया गया। वहां भगत और उनके साथियों पर लाहौर षड्यंत्र कांड (जिसके तहत सांडर्स की हत्या हुई थी) का मुकदमा चलाया जाना था। भगत सिंह ने मियांवाली जेल और सुखदेव ने लाहौर जेल से अल्पतम सुविधाएं मुहैया कराए
मियांवाली जेल, जहां भगत को कैद रखा गया |
लाहौर षड्यंत्र केस में दर्ज एफआईआर |
मगर अंग्रेज़ बौखला रहे थे। सांडर्स की हत्या ने ब्रिटेन तक में भारत सरकार की किरकिरी करवा दी थी। ऊपर से भगत सिंह और उनके साथी जिस तेज़ी से लोकप्रिय हो रहे थे वो उन्हें गांधी की तरह ही एक और बड़ी चुनौती बनाते जा रहे थे। अंग्रेज़ भगत सिंह को फांसी देने के लिए कितने बेताब थे इसे समझना ज़रूरी है। इसे समझे बिना हम भगत को बचाने में गांधी जी की अक्षमता या विवशता किसी को ठीक से समझ नहीं पाएंगे। अंग्रेज़ों के सामने अब कानूनन दो अड़चनें थीं जिन पर ध्यान दीजिएगा। पहली तो ये कि इंडियन क्रिमिनल प्रोसीजर कोड में एक नई धारा जोड़ने की जरूरत थी जो अभियुक्त या उसके वकील की गैर हाज़िरी में भी मुकदमा चलाने का हक दे दे और दूसरी ये कि मजिस्ट्रेट के सामने मुकदमे के बाद केस सेशन जज के पास जाता था। अगर जज फांसी की सजा देता तो उसकी पुष्टि उच्च न्यायालय से होना ज़रूरी था। इस पूरी प्रक्रिया में काफी समय लगना था। दुनिया में इंसाफ पसंद नस्ल माने जाने को बेताब अंग्रेज़ों ने उस साल बेशर्मी के कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए। उन्होंने दोनों समस्याओँ का तोड़ निकाल लिया। पहला काम तो ये किया गया कि कानून में नई धारा जोड़ी गई। इसके अनुसार यदि कोई अभियुक्त खुद को जानबूझकर ऐसी हालत में डाल लेता है कि वो अदालत में पेश ना हो सके तो चाहे उसने वकील किया हो या ना किया हो उस पर मुकदमा चलाया जा सकता है। दूसरा ये किया गया कि मुकदमे की सुनवाई के लिए सीधे उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को बैठाकर एक विशेष ट्रिब्यूनल का गठन किया गया ताकि मुकदमा जल्दी चले, सज़ा जल्दी हो और फिर उस पर अमल भी तुरंत ही हो सके। उस वक्त गवर्नर जनरल लॉर्ड इरविन थे। उन्हें भगत सिंह की फांसी से डिगाना मुश्किल था। वो मामले में ज़्यादा रुचि ले रहे थे। उन्होंने ट्रिब्यूनल का गठन तो किया ही, साथ में उसे अधिकार दिया कि चाहे निर्णय जो हो उसकी अपील कहीं और नहीं हो सकती।
मैं यहां आपको बताना चाहता हूं कि अभियुक्त के बिना मुकदमा चलाए जाने की धारा जोड़े जाने का बिल जिस वक्त सेंट्रल एसेंबली में लाया गया तब उसके खिलाफ मदनमोहन मालवीय, मोतीलाल नेहरू, मुहम्मद अली जिन्ना, एम आर जयकर उठ खड़े हुए। इसी दौरान 62 दिनों की भूख हड़ताल के बाद जतींद्रनाथ दास 13 सितंबर 1929 को जेल में प्राण त्याग चुका था। देश में भारी रोष था। कुछ अंग्रेज़ तक इस मौत से बुरी तरह परेशान और दुखी थे। अंदाज़ा लगाइए कि जतींद्रनाथ की मौत के बाद जब फिर से उसके मामले की सुनवाई शुरू हुई तो सरकारी पक्ष से अंग्रेज़ वकील कार्डेन नोड तक ने उस बालक की सराहना की। उस दिन पूरी अंग्रेजी अदालत जतींद्रनाथ को श्रद्धांजलि देने के लिए उठ खड़ी हुई थी।
बहरहाल सेंट्रल असेंबली में लौटते हैं। हर शब्द ध्यान से पढ़िएगा। बिल के खिलाफ बोलने के लिए मशहूर वकील और बाद में पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना खड़े हुए। उन्होंने कहा कि ‘सर जेम्स क्रेरार (जिन्होंने ये बिल लॉर्ड इरविन के इशारे पर पेश किया था) ने अपने भाषण में लाहौर के अभियुक्तों को राजनीतिक बंदी का दर्ज़ा देने से साफ मना कर दिया था। असल में पूरी समस्या की जड़ यही थी। यदि उन्हें ‘राजनीतिक बंदी’ मान लिया जाता तो उन्हें जेल में सामान्य अपराधियों (जिसमें कातिल, बलात्कारी, लुटेरे सब थे) की स्थिति में ना रहना पड़ता और उन शिकायतों को दूर करने का रास्ता साफ हो जाता, जिसकी वजह से अपनी मांगें पूरी कराने के लिए उन्हें लंबी भूख हड़ताल का सहारा लेना पड़ा।‘ इसके बाद चमनलाल ने बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह का पूरा पत्र सदन में पढ़कर सुनाया जिसमें ‘राजनीतिक बंदी’ की व्याख्या करने की कोशिश हुई थी। पत्र के हिसाब से राजनीतिक बंदी वो हुआ जिन्हें राज अथवा सरकार के खिलाफ अपराधों के अभियुक्त के रूप में जेल में रखा गया था। पत्र में मांग थी कि ऐसे सभी कैदियों को विशेष वार्ड में रखा जाए और सारी सविधाएं उपलब्ध कराई जाएं जो योरोपीय बंदियों को थी।
तब होम सेक्रेटरी इमरसन ने कहा था कि हिंसा, राजद्रोह के अभियुक्तों को राजनैतिक कैदी की श्रेणी में रखना मुमकिन नहीं है। उन्होंने नस्लीय आधार पर भी हिंदुस्तानियों को योरोपियन्स की श्रेणी में रखने से इनकार किया। अब इमरसन फंस गए। उनसे के सी नियोगी ने लगे हाथ पूछ लिया कि आपके हिसाब से योरोपियन कौन सी श्रेणी है।
इमरसन ने तब जेल मैन्युअल का सहारा लेते हुए बताया कि चाहे कोई योरोपियन हो या हिंदुस्तानी लेकिन अगर योरोपियनों जैसा रहता है तो वो इस श्रेणी में शामिल है। के सी नियोगी ने मौका देखकर कहा कि टोपी ( हैट, फेल्ट कैप वगैरह) लगानेवाला भी योरोपियन हो सकता है। जिन्ना ने भी कहा कि यदि नस्ल के आधार पर योरोपियन श्रेणी को जेल मैनुअल में परिभाषित नहीं किया जा रहा है तब तो भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त उस श्रेणी में आसानी से आते हैं। उनकी तस्वीरों का भी हवाला दिया गया। इसके बाद जिन्ना ने साफ ही कह दिया कि आप लोगों के बर्ताव से लग रहा है कि आपने उन बंदियों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया है। या तो सरकार उन्हें फांसी देना चाहती है या फिर कालापानी भेजना चाहती है। सरकार ऐसे लोगों को क्या सज़ा दे सकती है जो खुद ही अपनी जान लेने पर आमादा हैं। अनशन कर मृत्यु का वरण करना सबके बूते का नहीं है। सिर्फ अमेरिका में ऐसी एक घटना देखने को मिली है। जो भी इंसान भूख हड़ताल करता है उसकी अंतरात्मा अत्यंत संवेदनशील होती है। अपने उद्देश्य के सही होने में उसकी पूरी आस्था होती है। वह कोई सामान्य अपराधी नहीं होता, जिसे किसी नृशंस, स्वार्थप्रेरित और निम्नकोटि के अपराध का दोषी माना जाए।जिन्ना ने क्षोभ में यहां तक कहा कि बेहतर है कि न्याय का स्वांग ना किया जाए और इन्हें सूली पर टांग ही दिया जाए। जतींद्रनाथ की मौत से दुखी जयकर ने कहा कि हालांकि इन नौजवानों के राजनीतिक विचारों से हम में से कई सहमत नहीं हो सकते लेकिन इसमें दो राय नहीं कि अगर हिंदुस्तान में अपना शासन होता तो निश्चित ही ये साहसी और बहादुर नौजवान किसी आज़ाद देश की सेना के कमांडर और नौसेना के युद्धपोतों के सुयोग्य कैप्टन बनते।
तब होम सेक्रेटरी इमरसन ने कहा था कि हिंसा, राजद्रोह के अभियुक्तों को राजनैतिक कैदी की श्रेणी में रखना मुमकिन नहीं है। उन्होंने नस्लीय आधार पर भी हिंदुस्तानियों को योरोपियन्स की श्रेणी में रखने से इनकार किया। अब इमरसन फंस गए। उनसे के सी नियोगी ने लगे हाथ पूछ लिया कि आपके हिसाब से योरोपियन कौन सी श्रेणी है।
अपनी बहन और बेटी के साथ मुहम्मद अली जिन्ना |
पंजाब (अब पाकिस्तान में) में भगत का पुश्तैनी घर |
कुल मिलाकर हर किसी का ज़ोर इस बात पर था कि लाहौर षडयंत्र के आरोपियों को राजनैतिक बंदी का दर्जा दे दिया जाए। आगे मैं आपको बताऊंगा कि अगर भगत और उनके साथी राजनीतिक बंदी माने जाते तो उनकी मुक्ति के आसार बढ़ जाते। गांधी ने कैसे भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी को टालने की लगातार कोशिशें कीं और क्यों क्रांतिकारियों का राजनीतिक बंदी घोषित ना हो पाना ही अंत में गांधी जी को बातचीत की मेज पर कमज़ोर कर गया।
इति इतिहास श्रृंखला की कड़ी