मैं अक्सर तारीखों की भूलभुलैया में खो जाता हूं लेकिन एक तारीख ऐसी है जो मैं सालोंसाल याद रखता रहा हूं। मुझे इसे याद रखने के लिए दिमाग पर बहुत ज़ोर भी नहीं डालना पड़ता। ये दिन आज का है.. 23 जनवरी का। नेताजी सुभाषचंद्र बोस का जन्मदिन। सुभाष के प्रति मेरी दीवानगी उनके व्यक्तित्व के जुदा पहलुओ से बढ़ी थी और कुछ इसलिए भी क्योंकि वो इतिहास के उस कालखंड में अपनी भूमिका निभा रहे थे जो मुझे सबसे ज़्यादा रोमांचित करता है। बहरहाल , सुभाष एक तरफ संभ्रांत बंगाली परिवार के पढ़ाकू छुईमुई बच्चे हैं.. तो उसके बाद वो अंग्रेजों की सबसे बड़ी नौकरी को लात मार आनेवाले स्वाभिमानी युवा हैं। प्रौढ़ होते सुभाष गांधी के बाद अहिंसक कांग्रेस के सबसे लोकप्रिय नेता के रूप में उभरते हैं लेकिन फिर गांधी से ही मतभेद के कारण वो एक झटके में कांग्रेस से अलग होकर नई पार्टी बनाकर विद्रोही छवि गढ़ते हैं। आप पलक झपकतेे भी नहीं कि सुभाष कुरता उतारकर फौजी वरदी धारण कर लेते हैं और कभी रूस तो कभी जर्मनी में कूटनीति के मोर्चे फतह करते बढ़ते हैं। एक ही आदमी इतने अलग-अलग ढंग से आपको बार-बार चकित करता है. चकित कर डालने की उनकी इसी आदत ने उनके अंत को भी रहस्य बनाकर रख दिया.. एक ऐसा अंत जिसके ना होने की संभावनाएं अनंत हैं। नेताजी से जुड़े रहस्य हमेशा हवाओं में तैरते ही रहे क्योंकि कांग्रेस इस मामले पर हमेशा छुपनछुपाई खेलती रही।
मेरे बालमन पर सुभाष छाए रहे। खोजकर इधर-उधर से उनके बारे में पढ़ता था कि फिर आज से 7-8 साल पहले एक दुकान से अनुज धर की किताब हाथ लग गई। वो किताब नेताजी की कथित मृत्यु के बाद उनके जीवन की संभावनाएँ व्यक्त कर रही थी। छोटे से प्रकाशक की इस किताब को मैं ले आया और एक सांस में पढ़ गया। दूसरी सांस में मैंने प्रकाशक को एक पोस्टकार्ड लिख भेजा और कुछेक हफ्ते गुज़रते-गुज़रते किताब के लेखक अनुज धर ने मुझे फोन कर दिया। वो शाम मेरे लिए खास थी क्योंकि मन में उथल पुथल मचा देनेवाले धर ने मुझसे आधे घंटे के करीब बात की। अनुज धर पूरी बातचीत के दौरान थके-हारे से औऱ निराश लगे। उन्होंने इसकी वजह भी साझा की। दरअसल धर ने नेताजी के बारे में खोजबीन शुरू करके अपनी मुसीबतें बढ़ा ली थीं। अच्छे खासे अखबार में नौकरी करनेवाले धर ने नेताजी के जीवन पर एक खास सीरीज के लिए रिसर्च किया था । उसी सिलसिले में पढ़ते-लिखते धर की दिलचस्पी नेताजी के जीवन के उस पहलू में गहरा गई जब वो अचानक गायब हो गए। धर को लगा कि इस बारे में पड़ताल करने की ज़रूरत है। उन्हें भरोसा था कि लोग उनका साथ देंगे मगर इस राह पर चंद कदम बढ़ाते ही धर को समझ आ गया कि नेता और लोगों में से कोई भी उन्हें गंभीरता से नहीं ले रहा है। उनकी नौकरी से लेकर जान पर बन आई थी। वो मान रहे थे कि उन्होंने कांग्रेस से झगड़ा मोल ले लिया है। बातचीत में धर ने कहा कि वो मिशन नेताजी बंद करना चाहते हैं ताकि आगे चैन से कोई नौकरी कर सकें। उन दिनों मैं हिंदूवादी संगठनों के काफी करीब था। मैंने उन्हें उनके औऱ बीजेपी के पास जाने की सलाह दी क्योंकि कांग्रेस सरकार से लोहा लेने की अपेक्षा सिर्फ उनसे ही थी। धर ने मुझे ये कह कर चौंका दिया कि बीजेपी वाले इस मामले में कांग्रेसियों से अलग व्यवहार नहीं कर रहे। हिंदूवादी संगठन के लोग उनसे पूछ रहे थे कि इस मुद्दे में उनका एंगल कहां है। चारों ओर से हताश- परेशान धर ने फैसला लिया कि बस अब और नहीं...
खैर, बाद के दिनों में मैं उनके संपर्क में नहीं रहा लेकिन खबरों के पेशे में रहा तो उन्हें अनचाहे भी फॉलो करता रहा। जब कभी नेताजी की कोई खबर आती तो धर टीवी पर दिखने लगते। उनकी सक्रियता कम होने के बजाय बढ़ गई। बाद के दिनों में उन्होंने एक किताब और लिखी जिसे मैंने खरीदा। हमला और जोर से बोला गया था। ज़ाहिर है, धर पीछे नहीं हटे थे। लोकसभा चुनाव के दौरान राजनाथ सिंह ने घोषणा कर दी कि सरकार आई तो वो नेताजी से जुड़ी फाइलें सार्वजनिक करेंगे। एक साल तक ऐसा कुछ हुआ नहीं। जिज्ञासु लोगों ने आरटीआई डालनी शुरू कर दी। नेताजी के प्रति कांग्रेस के व्यवहार से दुखी लोगों में भी अब इस दिलचस्प कहानी को लेकर उत्सुकता दिखने लगी है। अब मोदी जी 100 फाइलें सार्वजनिक करने जा रहे हैं .. हर महीने 25 फाइलें सार्वजनिक किए जाने का भी वादा हुआ है। बावजूद इसके मुझे नहीं लगता कि कोई बहुत बड़ा खुलासा होने जा रहा है। सरकार एक हद तक लोगों की उत्सुकता खुजाएगी.. उसके बाद का रास्ता हर किसी के लिए मुश्किल होगा।
मैंने तमाम किताबें और आयोगों की रिपोर्ट पढ़ी हैं.. फिर भी बहुत कुछ कोहरे में है और नहीं दिखता। सीमित जानकारी के बीच मुझे लगता है कि सुभाष फैज़ाबाद के गुमनामी बाबा थे.. हद से हद दूसरा सच ये हो सकता है कि वो साइबेरिया की जेल में ही मारे गए। इस बीच तीसरी कोई संभावना मुझे सच नहीं लगती। नेताजी की मौत का कोई भी सच उनके जीवन के संघर्ष को धुंधला नहीं करता। उनके भाषण और लेख एक विज़न हैं। आज भले ही वो कुछ अप्रासंगिक भी लगते हैं मगर एक रास्ता वो भी हो सकता था जो उन्होंने भारत के लिए मन में तैयार किया था। वो अगर लौट आते तो कौन जानता है कि देश उस रास्ते ही चलता....
मेरे बालमन पर सुभाष छाए रहे। खोजकर इधर-उधर से उनके बारे में पढ़ता था कि फिर आज से 7-8 साल पहले एक दुकान से अनुज धर की किताब हाथ लग गई। वो किताब नेताजी की कथित मृत्यु के बाद उनके जीवन की संभावनाएँ व्यक्त कर रही थी। छोटे से प्रकाशक की इस किताब को मैं ले आया और एक सांस में पढ़ गया। दूसरी सांस में मैंने प्रकाशक को एक पोस्टकार्ड लिख भेजा और कुछेक हफ्ते गुज़रते-गुज़रते किताब के लेखक अनुज धर ने मुझे फोन कर दिया। वो शाम मेरे लिए खास थी क्योंकि मन में उथल पुथल मचा देनेवाले धर ने मुझसे आधे घंटे के करीब बात की। अनुज धर पूरी बातचीत के दौरान थके-हारे से औऱ निराश लगे। उन्होंने इसकी वजह भी साझा की। दरअसल धर ने नेताजी के बारे में खोजबीन शुरू करके अपनी मुसीबतें बढ़ा ली थीं। अच्छे खासे अखबार में नौकरी करनेवाले धर ने नेताजी के जीवन पर एक खास सीरीज के लिए रिसर्च किया था । उसी सिलसिले में पढ़ते-लिखते धर की दिलचस्पी नेताजी के जीवन के उस पहलू में गहरा गई जब वो अचानक गायब हो गए। धर को लगा कि इस बारे में पड़ताल करने की ज़रूरत है। उन्हें भरोसा था कि लोग उनका साथ देंगे मगर इस राह पर चंद कदम बढ़ाते ही धर को समझ आ गया कि नेता और लोगों में से कोई भी उन्हें गंभीरता से नहीं ले रहा है। उनकी नौकरी से लेकर जान पर बन आई थी। वो मान रहे थे कि उन्होंने कांग्रेस से झगड़ा मोल ले लिया है। बातचीत में धर ने कहा कि वो मिशन नेताजी बंद करना चाहते हैं ताकि आगे चैन से कोई नौकरी कर सकें। उन दिनों मैं हिंदूवादी संगठनों के काफी करीब था। मैंने उन्हें उनके औऱ बीजेपी के पास जाने की सलाह दी क्योंकि कांग्रेस सरकार से लोहा लेने की अपेक्षा सिर्फ उनसे ही थी। धर ने मुझे ये कह कर चौंका दिया कि बीजेपी वाले इस मामले में कांग्रेसियों से अलग व्यवहार नहीं कर रहे। हिंदूवादी संगठन के लोग उनसे पूछ रहे थे कि इस मुद्दे में उनका एंगल कहां है। चारों ओर से हताश- परेशान धर ने फैसला लिया कि बस अब और नहीं...
खैर, बाद के दिनों में मैं उनके संपर्क में नहीं रहा लेकिन खबरों के पेशे में रहा तो उन्हें अनचाहे भी फॉलो करता रहा। जब कभी नेताजी की कोई खबर आती तो धर टीवी पर दिखने लगते। उनकी सक्रियता कम होने के बजाय बढ़ गई। बाद के दिनों में उन्होंने एक किताब और लिखी जिसे मैंने खरीदा। हमला और जोर से बोला गया था। ज़ाहिर है, धर पीछे नहीं हटे थे। लोकसभा चुनाव के दौरान राजनाथ सिंह ने घोषणा कर दी कि सरकार आई तो वो नेताजी से जुड़ी फाइलें सार्वजनिक करेंगे। एक साल तक ऐसा कुछ हुआ नहीं। जिज्ञासु लोगों ने आरटीआई डालनी शुरू कर दी। नेताजी के प्रति कांग्रेस के व्यवहार से दुखी लोगों में भी अब इस दिलचस्प कहानी को लेकर उत्सुकता दिखने लगी है। अब मोदी जी 100 फाइलें सार्वजनिक करने जा रहे हैं .. हर महीने 25 फाइलें सार्वजनिक किए जाने का भी वादा हुआ है। बावजूद इसके मुझे नहीं लगता कि कोई बहुत बड़ा खुलासा होने जा रहा है। सरकार एक हद तक लोगों की उत्सुकता खुजाएगी.. उसके बाद का रास्ता हर किसी के लिए मुश्किल होगा।
मैंने तमाम किताबें और आयोगों की रिपोर्ट पढ़ी हैं.. फिर भी बहुत कुछ कोहरे में है और नहीं दिखता। सीमित जानकारी के बीच मुझे लगता है कि सुभाष फैज़ाबाद के गुमनामी बाबा थे.. हद से हद दूसरा सच ये हो सकता है कि वो साइबेरिया की जेल में ही मारे गए। इस बीच तीसरी कोई संभावना मुझे सच नहीं लगती। नेताजी की मौत का कोई भी सच उनके जीवन के संघर्ष को धुंधला नहीं करता। उनके भाषण और लेख एक विज़न हैं। आज भले ही वो कुछ अप्रासंगिक भी लगते हैं मगर एक रास्ता वो भी हो सकता था जो उन्होंने भारत के लिए मन में तैयार किया था। वो अगर लौट आते तो कौन जानता है कि देश उस रास्ते ही चलता....
उम्मीद है कि कुशवाहा कांत की उपन्यास "विद्रोही सुभाष" पढ़ी होगी।
जवाब देंहटाएंshare करने के लिए धन्यवाद्
जवाब देंहटाएंशुक्रिया पढ़ने का। :)
जवाब देंहटाएंइस आलेख के लिए शुक्रिया। अनुज धर की किताब पढ़ूंगा लेकिन उससे पहले नेताजी पर कुछ और पुस्तकें जहन में हैं। आपके आलेख का वह हिस्सा काफी दुःखद लगा जो यह इंगित करता है कि छानबीन करने पर धर साहब की भी जान पर बन आई थी। समझ नहीं आता यह कौनसी ताकतें हैं जो नहीं चाहती कि ये गुत्थी सुलझे। खैर, एक अज्ञात अंत उस अद्भुत संघर्ष और व्यापक सोच को नहीं दबा सकते जो नेताजी के परिचायक है। और हाँ, हर बार की तरह उम्दा लेखन।
जवाब देंहटाएंहैप्पी बर्थडे टू यू सुभाष.. उम्मीद हैं बोस के बारे में और भी रोचक जानकारी मिलती रहेगी.
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