बुधवार, 30 दिसंबर 2015

मुंबईनामचा -2

स्टेशन से निकलते हैं तो घर के आंगन में ठंडे पानी से पीठ रगड़ते लोग दिखते हैं. उसी आंगन के दूसरी तरफ पत्नी चाय गरम कर रही होती है. वैसे आंगन ना कहो तो अच्छा, वरना तुम्हारे-हमारे गांव का "ज्जे बड़ा आंगन" शरमा जाएगा. ये वो दुकमरिया के घर हैं जो माईबाप सरकार की किरपा से पक्के हुए.. वरना तो पचासियों साल से चाॅल थे. तब अवैध थे अब वैध हैं. अंदर टीवी ज़रूर मिलेगा. फर्श भी खूबसूरत टाइप. तो ये सब हैं लाइन में.. एक के बाद एक.. लगता है मालगुडी डेज में आ गया हूं...मगर भरम टूटता है. कैसे??? ऐन सामने डराती सी डेढ दर्जन मंजिल ऊंची शीशमहल बिल्डिंग भी है जिसमें धूप उतरते ही बाबू साहेब और मेम साहब लोग नौकरी बजाने आएंगे. दोपहर जब पेट में चूहादौड़ होगी तो इनमें से ज्यादातर को आंगन में पीठ रगड़ते भाईसाहब ही खाना खिलाएंगे. खाना भी उसी आंगन में बनेगा जहां अभी चाय खौल रही है. मेरे कान में ईयरफोन ठुंसे हैं और पाकिस्तानी कोक स्टूडियो वाला कंगना बज रहा है.. इसलिए बस कौवों की आवाज़ बीच-बीच में सुनाई दे रही है. खैर अभी सूरज निकला नहीं है. बचपन में कविता पढ़ी थी जिसकी हर चौथी लाइन थी- "आ रही रवि की सवारी." वैसा कुछ माहौल था. दिल में महबूबा की याद लिए और दिमाग में सात बजे का बुलेटिन लिए कब दफ्तर पहुंचा कुछ हिसाब नहीं. मुझे ये गली अच्छी लगती है इसलिए दफ्तर से स्टेशन तक पहुंचने के तमाम रास्ते होने के बावजूद ये ही पकड़ता हूं...भले कुछ लंबा सही. इस पूरे रास्ते में काली-पीली टैक्सी नहाई-धोई ऐसी खड़ी रहती हैं जैसे मुझे खुद ही टोक कर पूछेंगी-" चलना है?" और मैं आदतन पैंट की जेब में पैसे टटोलकर कहूंगा- "नहीं". मुस्कुराकर आगे बढ़ना सिखा रहा है मुंबई.
शुक्रिया सर्वप्रिया  और अभिषेक.. फुसफुसाते शहर की भाषा सुनने का हौसला तुमने ही जाने- अनजाने मुझमें भरा दोस्तों. अब रोज सुनने की कोशिश कर रहा हूं. नित नई बात लेकर बैठ जाता है मुंबई .  :)
(समंदर के शहर में)

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