शनिवार, 31 मई 2014

दो लाशें घूर रही हैं..

हम अपनी बच्चियों के साथ इंसाफ नहीं कर सके तो भला किसके साथ करेंगे? इस मामले में हम सब बराबर के दोषी हैं।बहुत इतराते हैं हम अपनी परंपराओं पर..कितना घमंड करते हैं अपनी सभ्यता पर!! ऐसी परंपराएं, सभ्यता, पैसा, शिक्षा किस काम का जो एक बच्ची में सुरक्षा का भाव ना पैदा कर सके?? यहाँ इस देश में और खासतौर पर उत्तर भारत में तो लड़की का पैदा होना ही गुनाह हो गया है।
अव्वल तो कोई लड़की पैदा नहीं करना चाहता..हो जाए तो बचपन से भाई के हक की मार सहना उसकी नियति बन जाएगी..हर बात पर वो किसी ना किसी की रोकटोक का शिकार होगी..उसकी अस्मत (हालाँकि जबरन संबंध बना लेने का इज्जत से क्या लेना-देना) की पहरेदारी में मां-बाप एक उम्र तक चौकीदार बने रहेंगे..फिर वो छोटा भाई तक जिसे बहन ने चलना सिखाया हो उसके चलन पर नज़र रखेगा..कहीं कोई प्रेमी हो भी गया तो वो मालिक की तरह बर्ताव करेगा.. शादी हो जाए तो दहेज के लिए बेइज्जत होगी और पिटेगी..लड़की का बाप किडनी तक बेचकर लड़केवाले का हलक भरेगा लेकिन लूट का नंगा नाच तब तक चलेगा जब तक लड़की रसोईघर में किसी "हादसे" का शिकार नहीं बन जाती। समाज के इन सब बर्ताव के बीच वो जान बचा जाए तो पति और बेटों के सहारे ज़िंदगी गुजारेगी..फिर अंत कैसा रहता है ये बताने के लिए भी क्या मेरे अब लिखने की ज़रूरत है??
मैं तो हैरान हूँ कि कोई औरत ऐसे समाज के बीच अपनी उम्र सम्मान के साथ पूरी कैसे कर पाती है? आपने तो उसे कुचलने के हर तरीके अपनाए लेकिन फिर भी ये कई बार रास्ता बनाकर आपके सिर पर चढ़ बैठती है। ऐसा हो जाए तो भी आप उसे बख्शते कहां हैं? वो आपकी बाॅस भी बन जाए तो लंच और चाय के वक्त अश्लील बातों में कुचली जाएगी। बकरे को जिबह करने के लिए भी एक उम्र का इंतजार होता है लेकिन लड़की को जिबह करने की ना उम्र है और ना खास मौका...
यूपी में पेड़ से टंगी मिली दोनों बहनों कि लाशें सिर्फ इस निज़ाम से नहीं बल्कि हम सबसे सवाल कर रही हैं और हम बेशर्म ठीक वैसे ही चुप्पी साधे जमीन ताक रहे हैं जैसे 16 दिसंबर के अगले दिन। अगर इंसान जैसे दिखनेवाले इन जानवरों के बीच बच्चियों का जिस्म सिर्फ हवस मिटाने का ही साधन रह गया है तो क्या अब कहा जाए और क्या ही लिखा जाए? मुझे इन लाशों को देखने के बाद नींद नहीं आ रही है। नींद वैसे भी कम है मगर अब इसमें बेचैनी और आ मिली। शोध होना ही चाहिए कि सरकार में बैठे ये कुरतेवाले सो कैसे लेते हैं..क्या उम्मीद करें कि मंच से बलात्कारियों के बचाव में बोलनेवाला अपने सीएम बेटे का कान उमेठ आदेश देगा कि जब तक अपराधी मिल नहीं जाते तू सोएगा नहीं! ऐसे मंज़र को देखने के बाद भी अगर मंत्री-अधिकारी सो पा रहे हैं तो ये सिस्टम सो नहीं रहा मर गया है। ये सिस्टम ही अब समस्या बन गया है।ऐसे सिस्टम को बचाए और बनाए रखने में इन "लोकतंत्र के सामंतों" का ही सबसे बड़ा फायदा है। हम सब इसके लिए जिम्मेदार हैं क्योंकि ना हम समाज बदल सके, ना हुक्मरानों को और ना खुद को। हमारे बाप-दादों ने मुलायम चुना तो हम भी अखिलेश को चुनकर गलती और पुख्ता करेंगे?? जड़ हो चुका ये समाज तो मंथर गति से जब बदलेगा तब बदलेगा लेकिन इस नृशंस कांड के बाद यूपी सरकार का इस्तीफा होना ही चाहिए। अगर आप इतने लोकप्रिय नेता नहीं कि लोगों के दिमाग सुधार सकें तो कम से कम कानून तो सख्ती से पालन कराइए..और अगर नहीं करा सके तो कोई हक नहीं कि आप सीएम की गद्दी गरमाएं।
(मैंने आक्रोश में जो लिखना था लिख डाला..जिसे जो बुरा लगता हो सो लगे। मैं इससे भी ज्यादा कठोर शब्दों का इस्तेमाल करना चाहता था लेकिन स्वीकारता हूँ कि मेरा गुस्सा मुझ पर हावी हो रहा है।)

गुरुवार, 29 मई 2014

पॉलीटिक्स से पीड़ित!

कुछ लोग राजनीति के मारे होते हैं.. राजनीति उनके सिर चढ़कर बोलती है। वो आपको मिलेंगे भी तो नमस्ते इंसान की तरह नहीं, नेता की तरह करेंगे। पोज़ ऐसा होगा कि आप समझ ही जाएंगे कि भाई पॉलीटिक्स से पीड़ित है। अच्छा नमस्ते के बाद हालचाल लेंगे तो वो भी घोर पॉलीटिकल अंदाज़ में..पॉज़ लिए बगैर... 

24 घंटे पॉलीटिकल मूड में रहनेवाले ऐसे लोगों से मैं बहुत डरता हूं। मिलना नहीं चाहता और मिल जाएं तो भाग निकलने की जुगत लगाता हूं। ये मिलेंगे तो क्या कुछ कहेंगे...मसलन... क्या गुरू,कांग्रेस जैसा मुंह क्यों लटकाए हो..  भाई क्या बात, आज  बड़े कमल की तरह खिल रहे हो...  यार राहुल गांधी जैसी बात ना कर... दोस्त मोदी जितना भी ना फेंको!
एक दोस्त ने हमें ये भी बताया कि अब ऐसे लोग नखरेबाज़ दोस्तों को ये कह कर भी ठेलते हैं- स्साले केजरीवाल ना बन!!

कहने का मतलब कुल जमा इतना है कि ये लोग अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आते और पॉलीटिकल बात करने के लिए इन्हें किसी के उकसावे की भी ज़रूरत नहीं होती। हमारा एक पुराना जाननेवाला था। उम्र तो हमसे दोगुनी ही थी लेकिन दो ही तरह की बातों में उसने सारा बचपन औऱ जवानी गुज़ार दी थी...पॉलीटिकल और सेक्स की बातें। कहने की ज़रूरत नहीं कि सेक्स में भी पॉलीटिकल बात कर लेता था क्योंकि उसका पहला प्यार पॉलीटिक्स ही थी.. अलबत्ता वोट नहीं देता था क्योंकि उसका इंटरेस्ट पॉलीटिक्स में नहीं पॉलीटिकल बातों में था।  साहब की बीवी ने बताया कि पहली बार देखने घर आए तो अकेले में मौका मिलते ही पूछा- तुम्हें बीजेपी पसंद है या कांग्रेस?? उसने अपनी ज़िंदगी में किसी के नाम का नारा नहीं लगाया था और ना ही किसी पार्टी को ज्वाइन किया लेकिन पॉलीटिक्स का कीड़ा इतना कि कोई नेता भी इतनी बात पॉलीटिक्स की ना करता होगा। 
मुझे औरों का नहीं पता लेकिन मौके-बेमौके पॉलीटिकल बात कर माहौल खराब करनेवालों को मैं दिमागी दहशतगर्द मानता हूं..इनका मकसद कुछ नहीं बस रायता फैलाना है..जब तक हो सके बचिए!!


बुधवार, 28 मई 2014

कोई बात नहीं बकाया..

ज़िंदगी में कितनी ही बार ऐसे मौके आए जब कुछ कहना चाहा लेकिन यही सोचकर चुप रह गया कि अब नहीं, थोड़ा रुक कर कहेंगे। रुक कर कहना चाहता भी था लेकिन वक्त की तो अपनी रफ्तार है और किस्मत का अपना लिखा..जो रह गया सो तो रह ही गया। कितनी बार दिल के अंधेरे कोनों में रह गई वो बात अचानक सामने आती तो मैं चौंक भी पड़ता..अरे तुम अभी यहीं हो! मुझे लगा मिट चुकी होंगी!!!
पाया मैंने कि बात वही रह जाती है जो कही नहीं गई। दिल में जड़ ज़्यादा वही बात जमाती है जो बाहर निकली ही नहीं। कितने शुक्रिया रह गए..कितनी साॅरी रह गई..कितनी तारीफें रह गईं और कितनी ही गालियां भी..हां गालियां भी।
अब कई काम करता हूँ तो लोग पूछते हैं कि इतनी जल्दी क्यों..लेकिन मुझे तो हैरत है कि जल्दी या देर का पता कैसे चल जाता है। ये जब होना था तभी हो रहा है। इससे पहले मौका नहीं था या मन नहीं था। आखिर ज़िंदगी की राह किस मोड़ खत्म हो जाए जानता ही कौन है इसलिए जब जिसे जो दिल की बात कह देनी हो वो कहता हूँ। जब जो करने का मन हो तो बहुत असुविधा ना होने पर करता ही हूँ। कुछ बकाया रखने का मन नहीं होता। सब हिसाब आज ही बराबर करते चलने को दिल चाहता है। कब तक जारी रख सकूँगा देखता हूँ।