साल 1936 में जर्मनी ओलंपिक खेलों का मेजबान था। एडोल्फ हिटलर के लिए ये मौका था जब वो दिखा सकता था कि अट्ठारह साल पूर्व पहली आलमी लड़ाई में हार चुका जर्मनी फिर से उठ खड़ा हुआ है। इन खेलों के सहारे वो जर्मनों की शर्मिंदगी को आत्मविश्वास में तब्दील कर डालना चाहता था। उसने टीवी नाम की मशीन का इस्तेमाल किया और पहली बार दुनिया में किसी खेल आयोजन का प्रसारण हुआ। वाकई वो जर्मनी की भव्यता का अद्भुत प्रदर्शन था। इसे समझने के लिए आप चाहें तो हॉलीवुड की मशहूर फिल्म रेस देख सकते हैं। फिल्म एक ऐसे अश्वेत एथलीट पर है जिसका जीतना हिटलर को भाता नहीं लेकिन वो नाज़ी जर्मनी के बड़े खिलाड़ियों को हराकर हिटलर का मान मर्दन करता है। ये वही ओलंपिक था जिसमें ध्यानचंद ने हॉकी स्टिक घुुमाकर हिटलर को सम्मोहित कर डाला था। ऑस्ट्रिया के वियना शहर में साल 1939 को ध्यानचंद की चार हाथ में चार हॉकी स्टिक लिए मूर्ति इसके ही बाद लगी । ठीक इसी दौरान दुनिया में विज्ञान कुलांचे भर रहा था। मशीनें और भी तेज़ हो रही थीं.. ज़्यादा स्मार्ट बन रही थीं। हर देश उत्पादन बढ़ाने के लिए मॉडर्न मशीनें चाहता था। पैसा कमाने की दौड़ में कोई किसी से पीछे नहीं छूटना चाह रहा था। तेज़ दौड़ती कारें.. दोगुनी-तिगुनी रफ्तार से सामान पैदा करते कारखाने.. सब कुछ तेज़ और ज़्यादा के बीच झूल रहा था।
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1936 के ओलंपिक में जादू करते ध्यानचंद |
पश्चिम से हज़ारों किलोमीटर दूर बैठे गांधी इस दृश्य को देखकर सहमे हुए थे। जो डर वो सालों पहले हिंद स्वराज में व्यक्त कर चुके थे, अब वो हकीकत बनकर सामने खड़ा था। हिंद स्वराज में गांधी ने लिखा था- 'मशीनें यूरोप को उजाड़ने लगी हैं और वहाँ की हवा अब हिंदुस्तान में चल रही है। यंत्र आज की सभ्यता की मुख्य निशानी है और वह महापाप है, ऐसा मैं तो साफ देख सकता हूँ।' जो वो देख समझ रहे थे उसे ठीक इसी दौरान फिल्मों का सबसे चमकता सितारा चार्ली चैप्लिन भी महसूस करने लगा था। हालांकि वो खुद नई मशीनों के सहारे अपने धंधे का विस्तार कर रहे थे मगर वो भूले नहीं थे कि उनका कल गरीबी की गोद में खेलकर ही दमकने वाला आज बना था। मशीनों के फेर में बढ़ती बेरोज़गारी और साथ ही खिंचते जा रहे काम के घंटे उन्हें परेशान करने लगे थे। टॉल्स्टॉय, इमरसन, रस्किन जैसे चिंतक मशीनों के चंगुल से आज़ाद करके मानवता को प्रकृति की तरफ ले जाना चाहते थे। वो अजब से धर्मसंकट में थे।
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दूसरे गोलमेज़ सम्मेलन में गांधीजी, सितंबर,1931 |
अब मैं ले चलता हूं आपको साल 1931 में। जगह लंदन थी और मौका था दूसरे गोलमेज सम्मेलन का। महात्मा गांधी पहले गोलमेज़ सम्मेलन के नाकामयाब होने के बाद कांग्रेस की तरफ से प्रतिनिधि बनकर आए थे। दक्षिण अफ्रीका से हिंदुस्तान लौटने के बाद वो पहली बार विदेशी दौरे पर थे। वक्त बदल चुका था। दुनिया या तो उनसे प्यार कर रही थी या नफरत.. लेकिन नज़रअंदाज़ अब कोई नहीं कर सकता था। असहयोग आंदोलन के प्रयोग ने अंग्रेज़ों के साथ ही पूरी दुनिया को समझा दिया था कि गांधी नाम का प्रयोगवादी बिना हिंसा किए भी जो हासिल करना चाहता है वो धीरे-धीरे कर रहा है। उस वक्त के वायसराय विलिंगडन तो गांधी के सामने बेहद बेबस थे। उन्होंने अपनी बहन को एक खत लिखा था। उसमें गांधी के बारे में उनकी जो राय थी वो पढ़िए- ''अगर गाँधी न होता तो यह दुनिया वाकई बहुत खूबसूरत होती। वह जो भी कदम उठाता है उसे ईश्वर की प्रेरणा का परिणाम कहता है लेकिन असल में उसके पीछे एक गहरी राजनीतिक चाल होती है। देखता हूँ कि अमेरिकी प्रेस उसको गज़ब का आदमी बताती है लेकिन सच यह है कि हम निहायत अव्यावहारिक , रहस्यवादी और अंधिविश्वासी जनता के बीच रह रहे हैं जो गाँधी को भगवान मान बैठी है।'' भारत की जनता के तत्कालीन भगवान से मिलने के लिए चार्ली चैप्लिन भी उत्साहित थे। वो खुद अपनी फिल्म सिटी लाइट्स का प्रचार करने बचपन के शहर लंदन लौटे थे। उन्हें सुझाव मिला कि गांधी से मिलिए। मौका अच्छा था।
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जवाब देंहटाएंजल्द लिखूंगा दोस्त।
हटाएंउत्सुकता बढा़ दी आपने और विलिंगडन के क्या कहने इसको डर कहते है जो विलिंगडन और चर्चिल समझ चुके थे की भारत उनके हाथ से छिन जायेगा
जवाब देंहटाएंहां ठीक एक ही वक्त पर दोनों को आभास था।
हटाएंKya baat hai .. likhiye bhai .. aapko bahut padhenge ..
जवाब देंहटाएंआप पढ़ेंगे इसकी गारंटी तो मुझे है।
हटाएंVery good...
जवाब देंहटाएंbahut badiya .....waiting next episode !
जवाब देंहटाएंVery interesting...& informative too
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंरोचक और ज्ञानवर्धक
जवाब देंहटाएंओहो, शुक्रिया अर्पणा जी।
हटाएंBaki Europe ki kya condition rahi hogi ???
जवाब देंहटाएंप्रेम जी, जब मैं कई देशों की स्थिति एक ही वक्त पर जांचता हूं तो हतप्रभ रह जाता हूं।
हटाएंAnt tak Padhna padega ise shighra pura kare
जवाब देंहटाएंजल्दी करता हूं सर।
हटाएंठाकुर साहब आपने दिल जीत लिया बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंजानकारी से भरा हुआ लेख बहुत शानदार
जवाब देंहटाएंVery interesting
जवाब देंहटाएंVery Interesting and useful, machino main aise uljheyhain pichley 22 saalo main, Ithihas ke panney tatolkar achcha laga. Aisa laga Sara Ghatnakram aankhon ke saamney ho raha hai. Churchill ka to Naam Bhi yaad na tha. Shukriya, aap logo ki wajah SE Purana shok padhney ka pura ho jata hai,
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ,
जवाब देंहटाएंEagerly Waiting for next part
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हटाएंबहुत बढ़िया भाई। अगली कड़ी का इन्तज़ार रहेगा।
जवाब देंहटाएंक्रमशः , के आगे के लेख का इंतज़ार !!!
जवाब देंहटाएंआरंभ ने उत्सुकता बढा दी है नितिन भाई....अगली कडी की प्रतीक्षा रहेगी।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंजितना सोचा था, उससे ज़्यादा अच्छा लगा भइया। वो 3 ईडियट्स का डायलॉग याद आ गया 'ज्ञान जहां से भी मिले लपेट लो।'
जवाब देंहटाएंअगले पार्ट का इंतजार है ....
Bahot khoob ��
जवाब देंहटाएंGandhi ka prabhav pure vishva pe ek samaan tha ❤
Lekin aql k andhe log unhe pehle bhi nhi samajh paye the naa hi aaj samajh paate hai...
सुन्दर
जवाब देंहटाएंइंतज़ार रहेगा
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा
सबसे पहले तो शुक्रिया इस पोस्ट के लिए कि मैं ये फैक्ट्स जान पाया..
जवाब देंहटाएं1- टीवी नाम की मशीन का इस्तेमाल किया और पहली बार दुनिया में किसी खेल आयोजन का प्रसारण हुआ।
2- ऑस्ट्रिया के वियना शहर में साल 1939 को ध्यानचंद की चार हाथ में चार हॉकी स्टिक लिए मूर्ति इसके ही बाद लगी।
3- वायसराय विलिंगडन का अपनी बहन को लिखा वो खत।
ये बातें पहली बार जानी। अब पोस्ट की अगली कड़ी पढ़े बिना अब रह नहीं सकता, इसलिए अगली कड़ी देखता हूँ...