गांधी उसे भी आकर्षित करते थे और मुझे भी. तमाम आकर्षण के बावजूद अब तक वो गांधी म्यूजियम नहीं गई थी. हल्की सर्दी, कुछ देर की बूंदाबांदी और थोड़ी धूप मौसम में मीठापन घोल रही थी. दिल्ली की सड़क पर कार फर्राटे भर कहीं भी दौड़ रही थी. मैंने अचानक ही कहा- आज ऑफिस मत जाओ.वो कभी बेवजह ऑफिस छोड़ने वालों में से नहीं थी. पलटकर वजह पूछी. वजह कोई खास थी नहीं. मैंने दो वजह फिर भी बताई- एक तो मौसम बहुत अच्छा है इसे बर्बाद नहीं करते. दूसरा ये कि गांधी म्यूजियम चलते हैं.
मौसम का आकर्षण और गांधी की बात.. दोनों को नकार नहीं सकी. गाड़ी ने म्यूजियम का रुख कर लिया. बाहर वीरानगी और भीतर नीरवता. अंदर प्रवेश करते ही गांधी युग में कदम रख दिया. हर जगह गांधी. कहीं छोटे से बच्चे के रूप में तो कहीं महामानव के अवतार में. अपने दौर पर छा जानेवाले गांधी का चश्मा, घड़ी, नकली दांत सब सम्मोहित कर रहे थे. फिर एक बड़े हाॅल में गांधी की हत्या के निशान! उस स्पेशल ट्रेन की रेप्लिका जिसमें उनका कलश रखकर राख बहाने ले जाया गया था. वो कपड़े जो लहू से लाल हुए. वो दुखभरे अंतिम संदेश जो दुनिया के हर कोने से भारत सरकार के पास आए.
इसके बाद पुस्तकालय गए. दोनों के हाथों में हाथ मगर गांधी भी जैसे लाठी टिकाते साथ ही चल रहे थे. इक्का-दुक्का कोई कहीं बैठा पन्ने पलट रहा था. गांधी और किताबें दोनों पर ही धूल जमी है. कोई नहीं पोंछता. मैं और वो भटकते रहे. कभी इस किताब को उठाया तो कभी उस किताब को. आखिर बाहर आ गए. गाड़ी के पास पहुंचे. पेड़ों से धूप जगह बनाकर जमीन पर पड़ रही थी. गीली मिट्टी धीमे-धीमे सूख रही थी. ना जाने क्यों मैं बोल पड़ा.. सुनो.. यहां कितनी शांति है ना.. अच्छा है.. अगर हमारी शादी हो गई तो बूढ़ा होने पर मैं यहीं पढ़ने आया करूंगा. मुस्कुराते हुए उसने कहा- हां इससे अच्छी जगह तो पढ़ने के लिए नहीं मिलेगी.
हम ऊपर-ऊपर बोल भले ही कुछ रहे थे लेकिन गांधी की स्मृतियों को दिल्ली की एक सड़क के यूं किनारे लगा देने पर जरा हताश थे. मैं मन में सोच रहा था कि यूरोप के किसी शख्स ने अगर गांधी को जाना होगा और भारत को गांधी के देश के तौर पर पहचाना होगा तो यहां आकर शायद उसे झटका लगे. दो-एक लोग, स्टाफ और एक प्रेमी जोड़ा.. कुल जमा यही हिस्से में आया उनके..
(साढ़े तीन इश्क और गांधी)