बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

JNU - फिर गिरा हिंदू दक्षिणपंथ का नजला



कल का दिन एक खबर से खत्म हुआ और सुबह की शुरुआत एक नई खबर से हुई।  रात जो आखिरी खबर पढ़ी वो जेएनयू मामले के बाबत थी। रात जो खबर मिली वो थी कि गृह मंत्रालय के अंतर्गत चलनेवाली जांच एजेंसियों ने जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष की आनन-फानन में गिरफ्तारी को दिल्ली पुलिस की अतिउत्साही कार्रवाई करार दिया है। सुबह जो पढ़ी वो खबर थी कि दिल्ली हाईकोर्ट ने उस याचिका को खारिज कर दिया है जिसमें जेएनयू मामले की जांच केंद्रीय एजेंसी एनआईए से कराए जाने की मांग की गई थी। माननीय अदालत ने इसे प्रीमैच्योर बताया और कहा कि पहले दिल्ली पुलिस को जांच पूरी कर लेनी चाहिए। इस बीच अपने अजीब और अनोखे कारनामों के लिए सुर्खियां बटोरनेवाले सुब्रह्ण्यम स्वामी जेएनयू को चार महीने तक बंद किए जाने का बयान देने से खुद को रोक नहीं सके। ये वैसा ही अतिउत्साह और प्रीमैच्योरिटी है जो दिल्ली पुलिस और याचिकाकर्ता ने ऊपर उल्लिखित मामलो में दिखाए। वैसे गृहमंत्री ने भी हाफिज सईद का नाम लेकर इस मामले में एक तरह की अतिश्योक्ति ही की थी मगर वो ठेठ राजनेता हैं तो बहुत मुमकिन है कि अपने विरोधियों की छवि धूल में मिला देने की नीयत से ही उन्होंने भारत के दुश्मन के साथ कार्यक्रम का नाम जोड़ा हो।
जेएनयू मामला अब एक ऑक्टोपस है जिसकी 8 भुजाएँ हैं। हर भुजा की अपनी जटिलता है और अपने पक्ष-विपक्ष हैं। इस मुद्दे को छोटी सी पोस्ट या लंबे से लेख में समेट पाना उतना भी आसान नहीं जितना ज़िंदाबाद या मुर्दाबाद के नारे लगा लेना है। इस पूरे उलझाव में जो एक अकेली बात सबसे साफ समझ आती है वो ये कि कुछ तत्व जिनका राष्ट्रवाद पर दावा है बेहद जोशो जुनून में हैं। ऐसे तत्वों की अगुवाई सुब्रह्णयम स्वामी जैसे लोग करते हैं। घरेलू राजनीति को फॉलो करनेवाला कोई भी शख्स आसानी से समझ सकता है कि इस जोश के पीछे मुद्दे की गंभीरता कम,  पुरानी अदावत ज्यादा है। संघ संचालित पत्र-  पत्रिकाओं के अलावा और तमाम हिंदू दक्षिणपंथियों को जेएनयू पर गुस्सा क्यों आता है ये समझना इतना भी मुश्किल नही। एलजीबीटी से लेकर किस ऑफ लव तक ऐसे तमाम बहाने हैं जो संघ और उसकी लाइन पर चलनेवालों को जेएनयू से लगातार खफा रखते हैं। ज़ाहिर है, जेएनयू परिसर में वामपंथियों का लंबे वक्त से कायम दबदबा भी संघ और उसके आनुषांगिक संगठनों को कभी नहीं सुहाया। राजनीतिक प्रतिस्पर्धा फिर भी अलग बात है जो तकनीकी तौर पर लोकतंत्र के लिए हानिकारक भी नही मगर राजनीतिक रास्ते से प्रतिस्पर्धी को हरा पाने में नाकाम जब एक पक्ष साज़िशों पर उतर आए तो खतरे का सायरन बजने लगता है। ये बात तब और गंभीर हो जाती है जब साजिश का मैदान एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय हो। इन साजिशों को दुनिया ने सूंघ लिया है। बेवजह नहीं कि दुनियाभर के विश्व विद्यालयों से 455 शिक्षाविद् बयान जारी कर रहे हैं। बयान बेहद गंभीर और गहरे निहितार्थ लिए हुए है- ''जेएनयू, विश्वविद्यालयों के भीतर आलोचनात्मक सोच, लोकतांत्रिक असहमति, छात्र सक्रियता, और कई राजनीतिक मान्यताओं की बहुलता को गले लगाने वाली सोच के साथ खड़ा है. ये बेहद अहम बात है और मौजूदा सरकारें इस माहौल खत्म कर देना चाहती है. और हम जानते हैं कि ये अकेले भारत की दिक्कत नहीं है.''
बयान की आखिरी लाइन डराती है। अकेले भारत में ही नही दुनिया भर में चरमपंथी ताकतें लोकतंत्र के खोल में घुसकर असहमतियों का खात्मा  कर रही हैं। कई बार सरकारें ये काम खुद ना करके अपने अनुयायियों से करा लेती है और बदले में उन्हें बिना शक अभयदान मिल जाता है। पटियाला हाउस कोर्ट परिसर के बाहर छात्रों और पत्रकारों के साथ जो हुआ वो शायद उसका सबसे ताजा और मुफीद उदाहरण है। करनेवाले अगर अभी भी आज़ाद घूम रहे हैं और पुलिस कमिश्नर सिर्फ अज्ञात में मामला दर्ज कर बहाने बना रहे हैं तो शिक्षाविदों का बयान और पुष्ट हो रहा है। इस बीच मारपीट करनेवाले विधायक ने खुलेआम टीवी पर कहा है कि उस वक्त मेरे पास रिवाल्वर होती तो  मैं गोली मार देता। वहीं पत्रकारों से बद्तमीज़ी करनेवाले वकील की पहचान पूरी सोशल मीडिया बिरादरी में हो चुकी  है लेकिन दिल्ली पुलिस अनजान बन कर गिरफ्तारियों से बच रही है। कल जिस तरह दिल्ली के इतिहास में पहली दफा पत्रकारों और संपादकों ने विरोध मार्च निकाला वो भी उस दबाव का एक प्रतीकात्मक विरोध है जो लगातार पौने दो साल से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से मीडिया पर बनाया गया है।
इस पूरे विमर्श में अफजल की बात इसलिए नही लिखी जा रही है क्योंकि उस पर कानून की राय एकदम साफ है। कल पूर्व अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी ने भी कहा कि अफज़ल को फांसी देने का विरोध देशद्रोह नहीं है और ना ही पाकिस्तान ज़िंदाबाद का नारा देशद्रोह है।
यहां एक बात साफ कर देना ज़रूरी है कि इसका अर्थ ये भी नहीं है कि भारत मुर्दाबाद के नारे सहे जाने चाहिए लेकिन देशद्रोह जिस किस्म का गंभीर अपराध है ये उसमें फिट नहीं बैठता। अपने दिलो दिमाग में देशद्रोह की परिभाषा तय करना अलग बात है और अदालत में कानून की धाराओं के आधार पर उसे साबित करना बिलकुल दूसरी ही बात है। अब मामला चूंकि कोर्ट में है इसलिए कानूनविदों और वकीलों को इस पर भिड़ने देना चाहिए। फिर भी एक छोटी सी बात लिखने के साथ मैं इस लेख को खत्म करना चाहता हूं। अफज़ल गुरू की फांसी के फैसले के वक्त बहुत से लोग इसके विरोध में थे। सबके विरोध की अपनी ही वजहें थीं। कुछ उसे निर्दोष मानते होंगे, कुछ उसे अपना हीरो तो कुछ सिर्फ मृत्युदंड के खिलाफ थे। जो कार्यक्रम जेएनयू में जारी था वो अफज़ल की फांसी के विरोध में था। इस में एआईएसएफ और डीएसयू दोनों शामिल थे। जहां एआईएसएफ मुख्यधारा का छात्र संगठन है, वहीं डीएसयू सीपीआई -माओवादी का अंग है। डीएसयू फार लेफ्ट है और अति पर जाना उसकी फितरत है जैसा वो कश्मीर की आज़ादी के साथ कथित रूप से भारत की बर्बादी के नारे लगाकर साबित हुआ भी। अधिकतर दक्षिणपंथी इस जटिलता में ना जाने के इच्छुक हैं और ना इससे परिचित ही हैं। उन्हें सिर्फ मौका हाथ लगा है और वो इसमें जिस किसी को लपेट सकते हैं, लपेट रहे हैं। जेएनयू को लेकर इन सबकी एक तयशुदा राय है और इस बार रोहित वेमुला से संबंधित आंदोलन से ध्यान हटाने के लिए शोर मचाना और ज़रूरी भी हो गया था। क्या हैरत है कि वेमुला मामले पर अपने खिलाफ नारे झेल चुके प्रधानमंत्री भी इस मसले को बड़ा बनता देख रहे हैं मगर चुप हैं। कहीं इस मामले के विस्तार में उन्हें अपना और अपनी सरकार का फायदा तो नहीं दिख रहा..







रविवार, 31 जनवरी 2016

गांधी के हिस्से में आया एक प्रेमी जोड़ा



गांधी उसे भी आकर्षित करते थे और मुझे भी. तमाम आकर्षण के बावजूद अब तक वो गांधी म्यूजियम नहीं गई थी. हल्की सर्दी, कुछ देर की बूंदाबांदी और थोड़ी धूप मौसम में मीठापन घोल रही थी. दिल्ली की सड़क पर कार फर्राटे भर कहीं भी दौड़ रही थी. मैंने अचानक ही कहा- आज ऑफिस मत जाओ.वो कभी बेवजह ऑफिस छोड़ने वालों में से नहीं थी. पलटकर वजह पूछी. वजह कोई खास थी नहीं. मैंने दो वजह फिर भी बताई- एक तो मौसम बहुत अच्छा है इसे बर्बाद नहीं करते. दूसरा ये कि गांधी म्यूजियम चलते हैं.
मौसम का आकर्षण और गांधी की बात.. दोनों को नकार नहीं सकी. गाड़ी ने म्यूजियम का रुख कर लिया. बाहर वीरानगी और भीतर नीरवता. अंदर प्रवेश करते ही गांधी युग में कदम रख दिया. हर जगह गांधी. कहीं छोटे से बच्चे के रूप में तो कहीं महामानव के अवतार में. अपने दौर पर छा जानेवाले गांधी का चश्मा, घड़ी, नकली दांत सब सम्मोहित कर रहे थे. फिर एक बड़े हाॅल में गांधी की हत्या के निशान! उस स्पेशल ट्रेन की रेप्लिका जिसमें उनका कलश रखकर राख बहाने ले जाया गया था. वो कपड़े जो लहू से लाल हुए. वो दुखभरे अंतिम संदेश जो दुनिया के हर कोने से भारत सरकार के पास आए.

इसके बाद पुस्तकालय गए. दोनों के हाथों में हाथ मगर गांधी भी जैसे लाठी टिकाते साथ ही चल रहे थे. इक्का-दुक्का कोई कहीं बैठा पन्ने पलट रहा था. गांधी और किताबें दोनों पर ही धूल जमी है. कोई नहीं पोंछता. मैं और वो भटकते रहे. कभी इस किताब को उठाया तो कभी उस किताब को. आखिर बाहर आ गए. गाड़ी के पास पहुंचे. पेड़ों से धूप जगह बनाकर जमीन पर पड़ रही थी. गीली मिट्टी धीमे-धीमे सूख रही थी. ना जाने क्यों मैं बोल पड़ा.. सुनो.. यहां कितनी शांति है ना.. अच्छा है.. अगर हमारी शादी हो गई तो बूढ़ा होने पर मैं यहीं पढ़ने आया करूंगा. मुस्कुराते हुए उसने कहा- हां इससे अच्छी जगह तो पढ़ने के लिए नहीं मिलेगी.
हम ऊपर-ऊपर बोल भले ही कुछ रहे थे लेकिन गांधी की स्मृतियों को दिल्ली की एक सड़क के यूं किनारे लगा देने पर जरा हताश थे. मैं मन में सोच रहा था कि यूरोप के किसी शख्स ने अगर गांधी को जाना होगा और भारत को गांधी के देश के तौर पर पहचाना होगा तो यहां आकर शायद उसे झटका लगे. दो-एक लोग, स्टाफ और एक प्रेमी जोड़ा.. कुल जमा यही हिस्से में आया उनके..
(साढ़े तीन इश्क और गांधी)

इश्क में ताज़ा नाकाम हुए दोस्त को ख़त

इश्क में ताज़ा नाकाम हुए मेरे प्रिय दोस्त,
मुझे यकीन है कि तुम मेरा ये खत ज़रूर पढ़ोगे। ताज़ा ब्रेक अप से उबरने की कोशिश कर रहे तुम जैसे लोग मन बहलाने के लिए इन दिनों में वो सब करते हैं जो गर्लफ्रेंड के रहते नहीं करते। उन दिनों तुम मेरे फोन नहीं उठाते थे और अक्सर मैसेज पढ़ना भी भूल जाते थे। देख रहा हूं कि आजकल क्विक रिस्पॉन्स करने की तुम्हारी क्षमता फिर लौट आई है। देखो ये अच्छा ही है। अब उन बातों पर ध्यान दो जिन पर पहले दे नहीं पाए थे। वैसे आज कल पुरानी फिल्मों और पुराने गानों को भी तुम ठीकठाक वक्त दे रहे होंगे। मेरी सलाह है कि इमोशनल फिल्म और गानों से कुछ दिन दूर रहो। ग़म हलका करने की बजाय ये उसे गहरा कर देते हैं। मेरी मानो तो कहीं घूम फिर आओ। होता-वोता कुछ है नहीं मगर आदमी खुद को किसी ट्रैजिडी फिल्म का हीरो सा फील करने लगता है और हीरो कौन नहीं होना चाहता!!
एक बात और लिखनी थी। देखो यार, उस लड़की का नंबर डिलीट कर दो। ये तो मैं भी जानता हूं कि तुम्हें वो मुंहज़ुबानी याद नहीं होगा। आजकल हर चीज़ सेव हो जाती है तो नंबर रटने का फालतू काम कौन करे। नंबर डिलीट कर दोगे तो उसके दो फायदे होंगे। एक तो तुम्हारा मन जब-जब उसे कॉल करने का होगा तो तुम कॉन्टेक्ट लिस्ट में जाकर ठिठकोगे नहीं। दूसरा ये कि वॉट्सएप पर उसे ऑनलाइन देखकर अंदाजा़ लगाने से बच जाओगे कि वो किस से चैट कर रही है। फेसबुक से तो उसने ही तुम्हें ब्लॉक कर दिया है तो उधर की अब फिक्र ही मत करना। बीच-बीच में वो अनब्लॉक कर तुम्हें देखेगी और इससे पहले कि तुम्हारा ध्यान उसकी प्रोफाइल पर जाए तुम फिर ब्लॉक कर दिए जाओगे। वैसे भी आजकल पहले ब्लॉक करना ईगो का इश्यू बन गया है। मुहब्बत में भी घमंड बचा लेते हैं लोग। अच्छा वो सारे फोटो भी एक साथ सेलेक्ट करके मिटा देना। इनसे अब खुशी नहीं मिलेगी बल्कि पुराना टाइम ही ज़्यादा आएगा। उसे भूलने की कोशिश करनी है तो पुराना टाइम याद करने से बचना पड़ेगा। मुश्किल है पर कर लोगे।
शराब कम ही पीना। हम पहले उसकी कसम खिलाकर तुम्हें पिला देते थे पर अब उसकी कसम खिलाकर रोक भी नहीं सकते। ऑफिस जाते रहो। 8-10 घंटे सब नॉर्मल होने की एक्टिंग करोगे तो भी ठीकठाक टाइमपास हो जाता है। चाहो तो उस लड़की से बात करके देख लो जिसने तुम्हें ढाई महीने पहले प्रोपोज़ किया था। क्या मालूम अभी उसकी कश्ती किनारे ना ही लगी हो। ना-ना ये नहीं कह रहा कि फिर रिलेशनशिप में पड़ो। बस ये चाहता हूं कि ब्रेकअप के बाद जैसे लड़के अचानक सब लड़कियों से नफरत करने लगते हैं ऐसा मत करना। लड़कियों से बातचीत करते रहो। तुम पाओगे कि ज़ख्म लगाने और मरहम करने दोनों में ही वो सबसे अच्छी हैं।
ऐसे तो यार तुमने भी हमेशा उससे अच्छा व्यवहार ही किया हो ये मैं नहीं लिखूंगा। कैसे लिखूं.. तुम्हें गुस्से में उसे गालियां देते, झूठ बोलते और फॉर ग्रान्टेड लेते देखा है मगर दोस्त के कुछ फर्ज़ होते हैं। अभी मेरा फर्ज़ तु्म्हारे घाव पर फाहा रखने का है, ना कि लापरवाही से चोट खाने पर डांटने और नसीहत करने का। लड़की वो बुरी नहीं थी। लड़के तुम भी बुरे नहीं हो। बस अधिकतर रिलेशनशिप ऐसे ही होते हैं। चलो, छोड़ो। दर्शन शास्त्र में तुम्हारी कभी रुचि नहीं रही औऱ ना पढ़ने में.. इसलिए ना ज्ञान दूंगा और ना लैटर और लंबा करूंगा। कभी मन करे तो मेरे पास चले आना। साथ में फिल्म-विल्म देख आएंगे। गर्लफ्रेंड के चक्कर में हमने तुमने काफी मिस किया। अगली मिलने तक दोनों भाई इंजॉय कर लेंगे।
तुम्हारा..
तजुर्बेकार दोस्त!!

शनिवार, 23 जनवरी 2016

हैप्पी बर्थडे टू यू सुभाष !

मैं अक्सर तारीखों की भूलभुलैया में खो जाता हूं लेकिन एक तारीख ऐसी है जो मैं सालोंसाल याद रखता रहा हूं। मुझे इसे याद रखने के लिए दिमाग पर बहुत ज़ोर भी नहीं डालना पड़ता। ये दिन आज का है.. 23 जनवरी का। नेताजी सुभाषचंद्र बोस का जन्मदिन। सुभाष के प्रति मेरी दीवानगी उनके व्यक्तित्व के जुदा पहलुओ से बढ़ी थी और कुछ इसलिए भी क्योंकि वो इतिहास के उस कालखंड में अपनी भूमिका निभा रहे थे जो मुझे सबसे ज़्यादा रोमांचित करता है। बहरहाल , सुभाष एक तरफ संभ्रांत बंगाली परिवार के पढ़ाकू छुईमुई बच्चे हैं.. तो उसके बाद वो अंग्रेजों की सबसे बड़ी नौकरी को लात मार आनेवाले स्वाभिमानी युवा हैं।  प्रौढ़ होते सुभाष गांधी के बाद अहिंसक कांग्रेस के सबसे लोकप्रिय नेता के रूप में उभरते हैं लेकिन फिर गांधी से ही मतभेद के कारण वो एक झटके में कांग्रेस से अलग होकर नई पार्टी बनाकर विद्रोही छवि गढ़ते हैं। आप पलक झपकतेे भी नहीं कि सुभाष कुरता उतारकर फौजी वरदी धारण कर लेते हैं और कभी रूस तो कभी जर्मनी में कूटनीति के मोर्चे फतह करते बढ़ते हैं। एक  ही आदमी इतने अलग-अलग ढंग से आपको बार-बार चकित करता है. चकित कर डालने की उनकी इसी आदत ने उनके अंत को भी रहस्य बनाकर रख दिया.. एक ऐसा अंत जिसके ना होने की संभावनाएं अनंत हैं। नेताजी से जुड़े रहस्य हमेशा हवाओं में तैरते ही रहे क्योंकि कांग्रेस इस मामले पर हमेशा छुपनछुपाई खेलती रही।
मेरे बालमन पर सुभाष छाए रहे। खोजकर इधर-उधर से उनके बारे में पढ़ता था कि फिर आज से 7-8 साल पहले एक दुकान से अनुज धर की किताब हाथ लग गई। वो किताब नेताजी की कथित मृत्यु के बाद उनके जीवन की संभावनाएँ व्यक्त कर रही थी। छोटे से प्रकाशक की इस किताब को मैं ले आया और एक सांस में पढ़ गया। दूसरी सांस में मैंने प्रकाशक को एक पोस्टकार्ड लिख भेजा और कुछेक हफ्ते गुज़रते-गुज़रते किताब के लेखक अनुज धर ने मुझे फोन कर दिया। वो शाम मेरे लिए खास थी क्योंकि मन में उथल पुथल मचा देनेवाले धर ने मुझसे आधे घंटे के करीब बात की। अनुज धर पूरी बातचीत के दौरान थके-हारे से औऱ निराश लगे। उन्होंने इसकी वजह भी साझा की। दरअसल धर ने नेताजी के बारे में खोजबीन शुरू करके अपनी मुसीबतें बढ़ा ली थीं। अच्छे खासे अखबार में नौकरी करनेवाले धर ने नेताजी के जीवन पर एक खास सीरीज के लिए रिसर्च किया था । उसी सिलसिले में पढ़ते-लिखते धर की दिलचस्पी नेताजी के जीवन के उस पहलू में गहरा गई जब वो अचानक गायब हो गए। धर को लगा कि इस बारे में पड़ताल करने की ज़रूरत है। उन्हें भरोसा था कि लोग उनका साथ देंगे मगर इस राह पर चंद कदम बढ़ाते ही धर को समझ आ गया कि नेता और लोगों में से कोई भी उन्हें गंभीरता से नहीं ले रहा है। उनकी नौकरी से लेकर जान पर बन आई थी। वो मान रहे थे कि उन्होंने कांग्रेस से झगड़ा मोल ले लिया है। बातचीत में धर ने कहा कि वो मिशन नेताजी बंद करना चाहते हैं ताकि आगे चैन से कोई नौकरी कर सकें।  उन दिनों मैं हिंदूवादी संगठनों के काफी करीब था। मैंने उन्हें उनके औऱ बीजेपी के पास जाने की सलाह दी क्योंकि कांग्रेस सरकार से लोहा लेने की अपेक्षा सिर्फ उनसे ही थी। धर ने मुझे ये कह कर चौंका दिया कि बीजेपी वाले इस मामले में कांग्रेसियों से अलग व्यवहार नहीं कर रहे। हिंदूवादी संगठन के लोग उनसे पूछ रहे थे कि इस मुद्दे में उनका एंगल कहां है। चारों ओर से हताश- परेशान धर ने फैसला लिया कि बस अब और नहीं...
खैर, बाद के दिनों में मैं उनके संपर्क में नहीं रहा लेकिन खबरों के पेशे में रहा तो उन्हें अनचाहे भी फॉलो करता रहा। जब कभी नेताजी की कोई खबर आती तो धर टीवी पर दिखने लगते। उनकी सक्रियता कम होने के बजाय बढ़ गई। बाद के दिनों में उन्होंने एक किताब और लिखी जिसे मैंने खरीदा। हमला और जोर से बोला गया था। ज़ाहिर है, धर पीछे नहीं हटे थे। लोकसभा चुनाव के दौरान राजनाथ सिंह ने घोषणा कर दी कि सरकार आई तो वो नेताजी से जुड़ी फाइलें सार्वजनिक करेंगे। एक साल तक ऐसा कुछ हुआ नहीं। जिज्ञासु लोगों ने आरटीआई डालनी शुरू कर दी।   नेताजी के प्रति कांग्रेस के  व्यवहार से दुखी लोगों में भी अब इस दिलचस्प कहानी को लेकर उत्सुकता दिखने लगी है। अब मोदी जी 100 फाइलें सार्वजनिक करने जा रहे हैं .. हर महीने 25 फाइलें सार्वजनिक किए जाने का भी वादा हुआ है। बावजूद इसके मुझे नहीं लगता कि कोई बहुत बड़ा खुलासा होने जा रहा है। सरकार एक हद तक लोगों की उत्सुकता खुजाएगी.. उसके बाद का रास्ता हर किसी के लिए मुश्किल होगा।
मैंने तमाम किताबें और आयोगों की रिपोर्ट पढ़ी हैं.. फिर भी बहुत कुछ कोहरे में है और नहीं दिखता। सीमित जानकारी के बीच मुझे लगता है कि सुभाष फैज़ाबाद के गुमनामी बाबा थे.. हद से हद दूसरा सच ये हो सकता है कि वो साइबेरिया की जेल में ही मारे गए। इस बीच तीसरी कोई संभावना मुझे सच नहीं लगती। नेताजी की मौत का कोई भी सच उनके जीवन के संघर्ष को धुंधला नहीं करता। उनके भाषण और लेख एक विज़न हैं। आज भले ही वो कुछ अप्रासंगिक भी लगते हैं मगर एक रास्ता वो भी हो सकता था जो उन्होंने भारत के लिए मन में तैयार किया था। वो अगर लौट आते तो कौन जानता है कि देश उस रास्ते ही चलता....