वो कॉफी बनाने के लिए किचन की तरफ चला गया तो सारिका भी बैठी नहीं रह सकी। ड्राइंगरूम में ही टहलने लगी। दीवार पर एक पेंटिंग सजी थी जिसके कोने में पेंटर का फ्रेंच नाम टंका था। कुछ याद नहीं आया कि साहिल को पेंटिंग का शौक कब रहा। अब सारिका का ध्यान साइड टेबल के ऊपर रखी गज़लों के बेतरतीब रिकॉर्ड्स पर था। उसे फिर से ख्याल आया कि साहिल तो गाने-बजाने के नाम पर सिर्फ लाउड पंजाबी गाने ही सुनता था तो ये गज़ल तक कब आ पहुंचा। एक बार तो कार में कौन सा गाना चलेगा इसी बात पर ऐसी लड़ाई हुई कि सारिका ने बीच सड़क में ही कार से उतरकर घर के लिए टैक्सी ले ली थी। क्या कमाल के दिन थे वो। छोटी सी बात पर प्यार,, और छोटी सी ही बात पर तकरार। लंबी सांस लेकर सारिका ने पलटकर ड्राइंगरूम से लगी बॉलकनी की तरफ कदम बढ़ाए। हवा में झूमती प्यारी-सी लिली जैसे मुस्कुराकर उसे ही देख रही थी। अरे.. ऐसी ही लिली तो थी सारिका के हॉस्टल के कमरे के बाहर भी जो अठखेलियां करती थीं। लिली ज़रा सी मुरझाती तो सारिका का मुंह कॉलेज में पूरा-पूरा दिन लटका रहता। साहिल उसे चिढ़ाता भी था- 'अरे.. आज लिली मुरझाई क्यों है....' साहिल को कभी फूलों का शौक नहीं था। कभी बहुत लड़ाई के बाद भी अगर सारिका को मनाने के लिए लाता तो कुछ भी ले आता। जब साथ थे तो कभी समझ ही नहीं सका कि उसे सिर्फ लिली पसंद है। आहट से सारिका चौंक गई। साहिल हाथ में कॉफी का मग लिए खड़ा था। हंसकर बोला- 'तो यहां भी लिली ढूंढ ली तुमने!!' सारिका के चेहरे पर हंसी नहीं थी। आंखों में आंसू थे। ज़बान पर सवाल- 'साहिल जब इतना ही बदलना था तो वक्त रहते क्यों नहीं बदले तुम....' साहिल को जैसे इस सवाल का दस सालों से इंतज़ार था। आंखों में आंखें डालकर कहा- 'सारिका, मैं बदल रहा था धीरे-धीरे.. तुम्हारे पास लेकिन महसूस करने का वक्त नहीं था।' सारिका का मोबाइल बजने लगा। कोई पंजाबी गाना था.. वैसा ही जैसा साहिल को दस साल पहले पसंद था। झट से फोन काटकर उसने पर्स उठा लिया- 'सॉरी साहिल, उनका फोन है। मैं चलती हूं। फिर कभी मिलते हैं। अब तो हम इसी शहर में आ गए हैं।'
'वो तो ठीक है सारिका, लेकिन जैसे सालों बाद आज अचानक मिली हो वैसे ही अब अचानक गायब मत हो जाना'' फिर से साहिल ने उसे अपनी आदत के मुताबिक छेड़ा लेकिन सारिका वाकई जल्दी में थी। सामान उठाकर दरवाज़े की तरफ चल दी.. बस इतना ही बोली- 'देखते हैं साहिल...'
(साढ़े तीन इश्क की किश्त-1)