कल का दिन एक खबर से खत्म हुआ और सुबह की शुरुआत एक नई खबर से हुई। रात जो आखिरी खबर पढ़ी वो जेएनयू मामले के बाबत थी। रात जो खबर मिली वो थी कि गृह मंत्रालय के अंतर्गत चलनेवाली जांच एजेंसियों ने जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष की आनन-फानन में गिरफ्तारी को दिल्ली पुलिस की अतिउत्साही कार्रवाई करार दिया है। सुबह जो पढ़ी वो खबर थी कि दिल्ली हाईकोर्ट ने उस याचिका को खारिज कर दिया है जिसमें जेएनयू मामले की जांच केंद्रीय एजेंसी एनआईए से कराए जाने की मांग की गई थी। माननीय अदालत ने इसे प्रीमैच्योर बताया और कहा कि पहले दिल्ली पुलिस को जांच पूरी कर लेनी चाहिए। इस बीच अपने अजीब और अनोखे कारनामों के लिए सुर्खियां बटोरनेवाले सुब्रह्ण्यम स्वामी जेएनयू को चार महीने तक बंद किए जाने का बयान देने से खुद को रोक नहीं सके। ये वैसा ही अतिउत्साह और प्रीमैच्योरिटी है जो दिल्ली पुलिस और याचिकाकर्ता ने ऊपर उल्लिखित मामलो में दिखाए। वैसे गृहमंत्री ने भी हाफिज सईद का नाम लेकर इस मामले में एक तरह की अतिश्योक्ति ही की थी मगर वो ठेठ राजनेता हैं तो बहुत मुमकिन है कि अपने विरोधियों की छवि धूल में मिला देने की नीयत से ही उन्होंने भारत के दुश्मन के साथ कार्यक्रम का नाम जोड़ा हो।
जेएनयू मामला अब एक ऑक्टोपस है जिसकी 8 भुजाएँ हैं। हर भुजा की अपनी जटिलता है और अपने पक्ष-विपक्ष हैं। इस मुद्दे को छोटी सी पोस्ट या लंबे से लेख में समेट पाना उतना भी आसान नहीं जितना ज़िंदाबाद या मुर्दाबाद के नारे लगा लेना है। इस पूरे उलझाव में जो एक अकेली बात सबसे साफ समझ आती है वो ये कि कुछ तत्व जिनका राष्ट्रवाद पर दावा है बेहद जोशो जुनून में हैं। ऐसे तत्वों की अगुवाई सुब्रह्णयम स्वामी जैसे लोग करते हैं। घरेलू राजनीति को फॉलो करनेवाला कोई भी शख्स आसानी से समझ सकता है कि इस जोश के पीछे मुद्दे की गंभीरता कम, पुरानी अदावत ज्यादा है। संघ संचालित पत्र- पत्रिकाओं के अलावा और तमाम हिंदू दक्षिणपंथियों को जेएनयू पर गुस्सा क्यों आता है ये समझना इतना भी मुश्किल नही। एलजीबीटी से लेकर किस ऑफ लव तक ऐसे तमाम बहाने हैं जो संघ और उसकी लाइन पर चलनेवालों को जेएनयू से लगातार खफा रखते हैं। ज़ाहिर है, जेएनयू परिसर में वामपंथियों का लंबे वक्त से कायम दबदबा भी संघ और उसके आनुषांगिक संगठनों को कभी नहीं सुहाया। राजनीतिक प्रतिस्पर्धा फिर भी अलग बात है जो तकनीकी तौर पर लोकतंत्र के लिए हानिकारक भी नही मगर राजनीतिक रास्ते से प्रतिस्पर्धी को हरा पाने में नाकाम जब एक पक्ष साज़िशों पर उतर आए तो खतरे का सायरन बजने लगता है। ये बात तब और गंभीर हो जाती है जब साजिश का मैदान एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय हो। इन साजिशों को दुनिया ने सूंघ लिया है। बेवजह नहीं कि दुनियाभर के विश्व विद्यालयों से 455 शिक्षाविद् बयान जारी कर रहे हैं। बयान बेहद गंभीर और गहरे निहितार्थ लिए हुए है- ''जेएनयू, विश्वविद्यालयों के भीतर आलोचनात्मक सोच, लोकतांत्रिक असहमति, छात्र सक्रियता, और कई राजनीतिक मान्यताओं की बहुलता को गले लगाने वाली सोच के साथ खड़ा है. ये बेहद अहम बात है और मौजूदा सरकारें इस माहौल खत्म कर देना चाहती है. और हम जानते हैं कि ये अकेले भारत की दिक्कत नहीं है.''
बयान की आखिरी लाइन डराती है। अकेले भारत में ही नही दुनिया भर में चरमपंथी ताकतें लोकतंत्र के खोल में घुसकर असहमतियों का खात्मा कर रही हैं। कई बार सरकारें ये काम खुद ना करके अपने अनुयायियों से करा लेती है और बदले में उन्हें बिना शक अभयदान मिल जाता है। पटियाला हाउस कोर्ट परिसर के बाहर छात्रों और पत्रकारों के साथ जो हुआ वो शायद उसका सबसे ताजा और मुफीद उदाहरण है। करनेवाले अगर अभी भी आज़ाद घूम रहे हैं और पुलिस कमिश्नर सिर्फ अज्ञात में मामला दर्ज कर बहाने बना रहे हैं तो शिक्षाविदों का बयान और पुष्ट हो रहा है। इस बीच मारपीट करनेवाले विधायक ने खुलेआम टीवी पर कहा है कि उस वक्त मेरे पास रिवाल्वर होती तो मैं गोली मार देता। वहीं पत्रकारों से बद्तमीज़ी करनेवाले वकील की पहचान पूरी सोशल मीडिया बिरादरी में हो चुकी है लेकिन दिल्ली पुलिस अनजान बन कर गिरफ्तारियों से बच रही है। कल जिस तरह दिल्ली के इतिहास में पहली दफा पत्रकारों और संपादकों ने विरोध मार्च निकाला वो भी उस दबाव का एक प्रतीकात्मक विरोध है जो लगातार पौने दो साल से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से मीडिया पर बनाया गया है।
इस पूरे विमर्श में अफजल की बात इसलिए नही लिखी जा रही है क्योंकि उस पर कानून की राय एकदम साफ है। कल पूर्व अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी ने भी कहा कि अफज़ल को फांसी देने का विरोध देशद्रोह नहीं है और ना ही पाकिस्तान ज़िंदाबाद का नारा देशद्रोह है।
यहां एक बात साफ कर देना ज़रूरी है कि इसका अर्थ ये भी नहीं है कि भारत मुर्दाबाद के नारे सहे जाने चाहिए लेकिन देशद्रोह जिस किस्म का गंभीर अपराध है ये उसमें फिट नहीं बैठता। अपने दिलो दिमाग में देशद्रोह की परिभाषा तय करना अलग बात है और अदालत में कानून की धाराओं के आधार पर उसे साबित करना बिलकुल दूसरी ही बात है। अब मामला चूंकि कोर्ट में है इसलिए कानूनविदों और वकीलों को इस पर भिड़ने देना चाहिए। फिर भी एक छोटी सी बात लिखने के साथ मैं इस लेख को खत्म करना चाहता हूं। अफज़ल गुरू की फांसी के फैसले के वक्त बहुत से लोग इसके विरोध में थे। सबके विरोध की अपनी ही वजहें थीं। कुछ उसे निर्दोष मानते होंगे, कुछ उसे अपना हीरो तो कुछ सिर्फ मृत्युदंड के खिलाफ थे। जो कार्यक्रम जेएनयू में जारी था वो अफज़ल की फांसी के विरोध में था। इस में एआईएसएफ और डीएसयू दोनों शामिल थे। जहां एआईएसएफ मुख्यधारा का छात्र संगठन है, वहीं डीएसयू सीपीआई -माओवादी का अंग है। डीएसयू फार लेफ्ट है और अति पर जाना उसकी फितरत है जैसा वो कश्मीर की आज़ादी के साथ कथित रूप से भारत की बर्बादी के नारे लगाकर साबित हुआ भी। अधिकतर दक्षिणपंथी इस जटिलता में ना जाने के इच्छुक हैं और ना इससे परिचित ही हैं। उन्हें सिर्फ मौका हाथ लगा है और वो इसमें जिस किसी को लपेट सकते हैं, लपेट रहे हैं। जेएनयू को लेकर इन सबकी एक तयशुदा राय है और इस बार रोहित वेमुला से संबंधित आंदोलन से ध्यान हटाने के लिए शोर मचाना और ज़रूरी भी हो गया था। क्या हैरत है कि वेमुला मामले पर अपने खिलाफ नारे झेल चुके प्रधानमंत्री भी इस मसले को बड़ा बनता देख रहे हैं मगर चुप हैं। कहीं इस मामले के विस्तार में उन्हें अपना और अपनी सरकार का फायदा तो नहीं दिख रहा..